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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र १४८, १४९
(४) मूल.
उत्तर. लोकसंस्थान ?
उन उन स्थानोंमें रहनेवाली सूर्य चन्द्र आदि वस्तु. धर्म अधर्म अस्तिकायरूप द्रव्य !
अथवा नियमित गति हेतु ? स्वाभाविक अभव्यत्व!
दुःषम सुषम आदि काल ! अनादि अनंत सिद्धि !
| मनुष्यकी ऊँचाई आदिका प्रमाण ! अनादि अनंतका ज्ञान किस तरह हो ! | अमिकाय आदिका निमित्तयोगसे एकदम उत्पन्न आत्माका संकोच-विस्तार ?
हो जाना! सिद्ध ऊर्ध्वगमन-चेतन, खंडकी तरह क्यों नहीं है ! | एक सिद्धमें अनंत सिद्धोंकी अवगाहना ! केवलज्ञानमें लोकालोकका ज्ञान कैसा होता है ? लोकस्थिति मर्यादाका हेतु ! शाश्वत वस्तु लक्षण !
बम्बई, कार्तिक १९४७
उपशमभाव सोलह भावनाओंसे भूषित होनेपर भी जहाँ स्वयं सर्वोत्कृष्ट माना गया है, वहाँ दूसरोंकी उत्कृष्टताके कारण अपनी न्यूनता होती हो, और कोई मत्सरभाव आकर चला जाय तो वह उसको उपशमभाव था, क्षायिक नहीं था; यह नियम है।
(२) वह दशा क्यों घट गई है और वह दशा बढी क्यों नहीं ? लोकके संबंधसे, मानेच्छासे, अजागृतपनेसे, और स्त्री आदि परिषहोंकी जय न करनेसे ।
जिस क्रिया जीवको रंग लगता है, उसकी वहीं स्थिति होती है, ऐसा जो जिनभगवानका अभिप्राय है वह सत्य है।
श्रीतीर्थकरने महामोहनीयके जो तीस स्थान कहे हैं, वे सत्य हैं।
अनंतज्ञानी पुरुषोंने जिसका कोई भी प्रायश्चित्त नहीं कहा और जिसके त्यागकी ही एकान्त आज्ञा दी है, ऐसे कामसे जो व्याकुल नहीं हुआ, वही परमात्मा है ।
१४९ बम्बई, कार्तिक सुदी १४, १९४७ अनन्तकालसे आत्माको आत्मविषयक जो भ्रान्ति हो रही है, यह एक अवाच्य अद्भुत विचार करने जैसी बात है । जहाँ मतिकी गति नहीं, वहाँ वचनकी गति कैसे हो सकती है !
निरन्तर उदासीनताके क्रमका सेवन करना; सत्पुरुषकी भक्तिमें लीन होना; सत्पुरुषोंके चरित्रोंका स्मरण करना; सत्पुरुषों के लक्षणोंका चिन्तवन करना; सत्पुरुषोंकी मुखाकृतिका हृदयसे अवलोकन