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पत्र १५०, १५१, १५२,१५३] विविध पत्र आदि संग्रह-२४वाँ वर्ष करना; उनके मन, वचन और कायकी प्रत्येक चेष्टाके अद्भुत रहस्योंका फिर फिरसे निदिध्यासन करना; और उनके द्वारा माने हुएको सर्वथा मान्य करना।
१५० बम्बई, कार्तिक सुदी १५, बुध. १९४७ निरंतर एक ही श्रेणी रहती है । पूर्ण हरि-कृपा है ।
(सत् श्रद्धाको पाकर ) जो कोई तुम्हारी धर्मके निमित्तसे इच्छा करे उसका संग रक्खो ।
१५१ बम्बई, कार्तिक वदी ३ शनि. १९४७ यह दृढ़ विश्वासपूर्वक मानना कि यदि इसको उदयकालमें व्यवहारका बंधन न होता तो यह तुम्हें और दूसरे बहुतसे मनुष्योंको अपूर्व हितको देनेवाला होता । जो कुछ प्रवृत्ति होती है, उसके कारणसे उसने कुछ विषमता नहीं मानी, परंतु यदि उसे निवृत्ति होती तो वह दूसरी आत्माओंके लिये मार्ग मिलनेका कारण हो जाता । अभी उसे विलंब होगा । पंचमकालकी भी प्रवृत्ति है; इस भवमें मोक्ष जानेवाले मनुष्योंका संभव होना भी कम है; इत्यादि कारणोंसे ऐसा ही हुआ होगा, तो उसके लिये कुछ खेद नहीं।
१५२ बम्बई, कार्तिक वदी ५ सोम. १९४७
संतकी शरणमें जा सत्संग यह बड़ेसे बड़ा साधन है।
सत्पुरुषकी श्रद्धाके बिना छुटकारा नहीं । इन दो विषयोंका शास्त्र इत्यादिसे उनको उपदेश करते रहना । सत्संगकी वृद्धि करना।
१५३ बम्बई, नाखुदा मोहल्ला, कार्तिक वदी ९ शुक्र. १९४७ एक ओर तो परमार्थ-मार्गको शीघ्रतासे प्रकाशित करनेकी इच्छा है, और दूसरी ओर अलख 'लय ' में लीन हो जानेकी इच्छा रहती है । यह आत्मा अलख ' लय ' में पूरी पूरी समाविष्ट हो गई है। योगके द्वारा समावेश करना यही एक रटन लगी हुई है। परमार्थके मार्गको यदि बहुतसे मुमक्ष पायें, अलख-समाधि पायें, तो बहुत अच्छा हो, और इसीके लिये कुछ मनन भी है । दीनबंधुकी जैसी इच्छा होगी वैसा हो रहेगा। .
निरंतर ही अद्भुत दशा रहा करती है। हम अवधूत हुए हैं। और अवधूत करनेकी बहुतसे जीवोंके प्रति दृष्टि है।
महावीरदेवने इस कालको पंचमकाल कहकर दुःषम कहा, व्यासने कलियुग कहा, इस प्रकार