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पत्र १४७]
विविध पत्र आदि संग्रह-२४वाँ वर्ष संभव है, वह मार्ग संप्रदायकी रीतिद्वारा बहुतसे जीवोंको मिल भी जाय, किन्तु दर्शनकी रीतिसे तो वह विरले ही जीवोंको प्राप्त होता है।
यदि जिनभगवान्का अभिमत मार्ग निरूपण करने योग्य गिना जाय तो उसका संप्रदाय-भेदकी कोटिसे निरूपण होना बिलकुल असंभव है, क्योंकि उस मार्गकी रचनाको सांप्रदायिक स्वरूपमें लाना अत्यन्त कठिन है।
दर्शनकी अपेक्षासे किसी जीवका उपकारी होने जितना विरोध आता है।
(२) जो कोई महान् पुरुष दुए हैं वे पहिलेसे ही स्वस्वरूप (निजशक्ति ) समझ सकते थे, भावी महान् कार्यके बीजको पहिलेसे ही अव्यक्तरूपमें वपन किये रखते थे-अथवा स्वाचरणको अविरोध जैसा रखते थे।
__मुझमें वह दशा विशेष विरोधमें पड़ी हुई जैसी मालूम होती है । वह विरोध क्यों मालूम होता है, उसके कारणोंको भी यहाँ लिख देता हूँ:
१. संसारीकी रीतिके समान विशेष व्यवहार रहनेसे । २. ब्रह्मचर्यका धारण ।
(१) उद्देश प्रकरण. सर्वज्ञ-मीमांसा. षट्दर्शन अवलोकन. वीतराग अभिप्राय विचार. व्यवहार प्रकरण. मुनिधर्म. आगारधर्म. मतमतांतर निराकरण. उपसंहार. (२) नवतत्त्वविवेचन. गुणस्थानविवेचन. कर्मप्रकृतिविवेचन. विचारपद्धति. श्रवणादिविवेचन. बोधबीजसंपत्ति. जीवाजीवविभक्ति. शुद्धात्मपदभावना.
वीतराग दर्शन
| (३) अंग. उपांग. मूल. छेद. | आशय प्रकाशिता टीका. व्यवहारहेतु. परमार्थहेतु. परमार्थ गौणताकी प्रसिद्धि. . व्यवहार विस्तारका पर्यवसान. अनेकांतदृष्टि हेतु. स्वगत मतांतर निवृत्तिप्रयत्न. उपक्रम. उपसंहार. अविसंधि. लोकवर्णन
स्थूलत्व हेतु. वर्तमानकालमें आत्मसाधन भूमिका. वीतरागदर्शन व्याख्याका अनुक्रम.