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भीमद् राजघन्य
[पत्र १४२, १४३ ६. सच्चे स्नेहीकी चाह ही सज्जनताका खास लक्षण है। ७. दुर्जनका कम सहवास करो। . ८. सब कुछ विवेक-बुद्धिसे आचरण करो। ९. द्वेषका अभाव करो । इस ( द्वेष ) वस्तुको विषरूप मानो । १०. धर्म कर्ममें वृत्ति रक्खो। ११. नीतिकी सीमापर पैर नहीं रक्खो। १२. जितेन्द्रिय बनो। १३. ज्ञान-चर्चा, विद्या-विलासमें तथा शास्त्राध्ययनमें गुँथे रहो । १४. गंभीरता रक्खो। १५. संसारमें रहनेपर भी और नीतिपूर्वक भोग करनेपर भी विदेही-दशा रक्खो । १६. परमात्माकी भक्तिमें गुंथे रहो। १७. परनिन्दाको ही सबल पाप मानो। १८. दुर्जनतासे सफल होना ही हारना है, ऐसा मानो। १९. आत्मज्ञान और सज्जनोंकी संगति रक्खो।
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बम्बई, वि.सं.१९४६ बहुतसी बातें ऐसी हैं जो केवल आत्मगम्य हैं, और मन, वचन और कायासे पर हैं; तथा बहुतसी बातें ऐसी हैं जो वचन और कायासे पर हैं, परन्तु उनका अस्तित्व है।
श्रीभगवान् । श्रीमघशाप । श्रीबखलाध ।
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बम्बई, वि.सं.१९४६ महावीरदेवने प्रथम तीनों कालोंको मुट्ठीमें कर लिया, अर्थात् जगत्को इस प्रकार देखाःउसमें अनन्त चैतन्य आत्माओंको मुक्त देखा। अनन्त चैतन्य आत्माओंको बद्ध देखा। .. अनन्त चैतन्य आत्माओंको मोक्षका पात्र देखा। अनन्त चैतन्य आत्माओंको मोक्षका अपात्र देखा । अनन्त चैतन्य आत्माओंको अधोगतिमें देखा। . अनन्त चैतन्य आत्माओंको ऊर्ध्वगतिमें देखा।
१. 'भगवान्' शब्दके भ, ग, व और न इन अक्षरों के आगेका एक एक अक्षर लेनेसे मषशाप, और इन अक्षरोंके पीछेका एक एक अक्षर लेनेसे बललाध शब्द बनते हैं। अनुवादक।