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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र १३७, १३८
रहा करता था। इतनेम पद मिला; और मूलपदका अतिशय स्मरण हुआ; एकतान हो गया । एकाकारवृत्तिका वर्णन शब्दसे कैसे किया जा सकता है ! यह दशा दिनके बारह बजेतक रही । अपूर्व आनन्द तो अब भी वैसाका वैसा ही है, परन्तु उसके बादका काल दूसरी बातें (ज्ञानकी ) करनेमें चला गया।
" केवलज्ञान हवे पामशु, पामशु, पामशुं रे के० " ऐसा एक पद बनाया। हृदय बहुत आनन्दमें है।
(२) जीवके अस्तित्वका तो किसी भी कालमें संशय न हो। जीवके नित्यपनेका-त्रिकालमें होनेका-किसी भी समय संशय न हो । जीवके चैतन्यपनेका-त्रिकाल अस्तित्वका-किसी भी समय संशय न हो। उसको किसी भी प्रकारसे बंधदशा रहती है, इस बातका किसी भी समय संशय न हो।
उस बंधकी निवृत्ति किसी भी प्रकारसे निस्सन्देह योग्य है, इस बातका किसी भी समय संशय न हो।
मोक्षपद है, इस बातका किसी भी समय संशय न हो ।
१३७ ववाणीआ, आसोज सुदी १२ शनि. १९४६ संसारमें रहना और मोक्ष होनी कहना, यह बनना कठिन है ।
उदासीनता अध्यात्मकी जननी है।
१३८ . मोरवी, आसोज १९४६ दूसरे बहुत प्रकारके साधन जुटाये, और स्वयं अपने आप बहुतसी कल्पनायें कीं, परन्तु असत् गुरुके कारण उलटा संताप ही बढ़ता गया ॥१॥ . . . . .
जिस समय पूर्वपुण्यके उदयसे सद्गुरुका योग मिला, उस समय वचनरूपी अमृतके कानोंमें पड़नेसे हृदयमेंसे सब प्रकारका शोक दूर हो गया ॥२॥
इससे मुझे निश्चय हो गया कि यहींपर संताप नष्ट होगा । बस फिर मैं एक लक्षसे नित्य ही उस सद्गुरुका सत्संग करने लगा ॥३॥
१३८ बीजा साधन बहु कों, करी कल्पना आप । अथवा असद्गुरु थकी, उलटो वभ्यो उताप ॥" पूर्व पुण्यना उदयथी, मळ्यो सद्गुरु योग । वचन-सुषा भवणे जता, थयु हृदय गतशोग ॥२॥ निश्चय एथी आवियो, टळो अहीं उताप । नित्य कयों सत्संग में, एक लक्षयी आप ॥३॥