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पत्र १२५ ] विविध पत्र आदि संग्रह-२३वाँ वर्ष
૨૦૭ वस्तु हीन मिली, तो फिर चौदह पूर्वका ज्ञान अज्ञानरूप ही दुआ-यहाँ 'एकदेश कम' चौदह पूर्वका ज्ञान समझना चाहिये । यहाँ 'एकदेश कम' कहनेसे अपनी साधारण बुद्धिमें तो यही समझमें आता है पढ़ते पढ़ते चौदह पूर्वके अन्ततक पहुँचनेमें जो कोई एकाध अध्ययन बाकी रह गया हो, तो उसके कारण भटक पड़े; परन्तु वस्तुतः इसका ऐसा मतलब नहीं है । इतने आधिक ज्ञानका अभ्यासी भी यदि केवल एक अल्पभागके कारण ही अभ्यासमें पराभव प्राप्त करे, यह बात मानने जैसी नहीं है। अर्थात् शास्त्रकी भाषा अथवा अर्थ कोई ऐसा कठिन नहीं है जो उन्हें स्मरणमें रखना कठिन पड़े, किन्तु वास्तविक कारण यही है कि उन्हें उस मूलवस्तुका ही ज्ञान नहीं हो सका, और यही सबसे बड़ी कमी है,
और इसीने चौदह पूर्वके समस्त ज्ञानको निष्फल बना दिया। एक नयसे ऐसा विचार भी हो सकता है कि यदि तत्त्व ही प्राप्त न हुआ तो शास्त्र-लिखे हुए पत्र का बोझा ढोना और पढ़ना इन दोनोंमें कोई अन्तर नहीं; क्योंकि दोनोंने ही बोझेको उठाया है । जिसने पत्रोंका बोझा ढोया उसने शरीरसे बोझा उठाया, और जो पढ़ गया उसने मनसे बोझा उठाया; परन्तु वास्तविक लक्ष्यार्थ बिना उनकी निरुपयोगिता ही सिद्ध होती है, ऐसा समझमें आता है । जिसके घर समस्त लवणसमुद्र है, वह तृषातुरकी तृषा मिटानेमें समर्थ नहीं; परन्तु जिसके घर मीठे पानीकी कुंइया भी है वह अपनी और दूसरे बहुतसोंकी तृषा मिटानेमें समर्थ है, और ज्ञानदृष्टि से देखनेसे महत्त्व भी उसीका है।
तो भी अब दूसरे नयपर दृष्टि करनी पड़ती है। और वह यह कि यदि किसी तरह भी शास्त्राभ्यास होगा तो कुछ न कुछ पात्र होनेकी अभिलाषा होगी, और काल आनेपर पात्रता भी मिलेगी ही, और वह दूसरोंको भी पात्रता प्रदान करेगा; इसलिये यहाँ शास्त्राभ्यासके निषेध करनेका अभिप्राय नहीं, परन्तु मूलवस्तुसे दूर ले जानेवाले शास्त्राभ्यासका निषेध करें, तो हम एकांतवादी नहीं कहे जायगे।
इस तरह इन दो प्रश्नोंका संक्षेपमें उत्तर लिख रहा हूँ। लिखनेकी अपेक्षा वचनसे अधिक समझाया जा सकता है; तो भी आशा है कि इससे समाधान होगा, और वह पात्रताके कुछ न कुछ अंशोंकी वृद्धि करेगा और एकांत-दृष्टिको घटायेगा, ऐसी मान्यता है।
__ अहो! अनंत भवके पर्यटनमें किसी सत्पुरुषके प्रतापसे इस दशाको प्राप्त इस देहधारीको तुम चाहते हो और उससे धर्मकी इच्छा करते हो, परन्तु वह तो अभी किसी आश्चर्यकारक उपाधिमें पड़ा है ! यदि वह निवृत्त होता तो बहुत उपयोगी होता। अच्छा, तुम्हें उसके लिये जो इतनी अधिक श्रद्धा रहती है, उसका क्या कुछ मूलकारण मालूम हुआ है ! इसके ऊपर की हुई श्रद्धा, और इसका कहा हुआ धर्म अनुभव करनेपर अनर्थकारक तो नहीं लगता है न! अर्थात् अभी उसकी पूर्ण कसौटी करना, और ऐसे करनेमें वह प्रसन्न है। उसके साथ ही साथ तुम्हें योग्यताकी प्राप्ति होगी; और कदाचित् पूर्वापर भी शंकारहित श्रद्धा ही रही तो उसको तो वैसी ही रखनेमें कल्याण है, ऐसा स्पष्ट कहना योग्य मालूम होता था, इसलिये आज कह दिया है।
आजके पत्रकी भाषा बहुत ही प्रामीण लिखी है, परन्तु उसका उद्देश केवल परमार्थ ही है । आगमके उल्लासकी वृद्धि करना-ज़रूर ।
अनामजीका प्रणाम.