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२०६ श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र १२५ उत्तराध्ययनसिद्धांतमें जो सब प्रदेशोंसे कर्म-संबंध बताया है, उसका हेतु यह समझमें आता है कि ऐसा कहना केवल उपदेशके लिये है । 'सब प्रदेशोंसे' कहनेसे शास्त्रकर्ता यह निषेध करते हों कि आठ रुचक प्रदेश काँसे रहित नहीं हैं, यह नहीं समझना चाहिये । परन्तु बात यह है कि जब असंख्यात प्रदेशी आत्मामें केवल आठ ही प्रदेश कर्मरहित हैं, तब असंख्यात प्रदेशोंके सामने वे कौनसी गिनतीमें हैं ! असंख्यातके सामने उनका इतना अधिक लघुत्व है कि शास्त्रकारने उपदेशकी अधिकताके लिये इस बातको अंतःकरणमें रखकर बाहरसे इस प्रकार उपदेश किया है; और सभी शास्त्रकारोंकी यही शैली है । उदाहरणके लिये अंतर्मुहूर्तका साधारण अर्थ दो घड़ीके भीतरका कोई भी समय होता है; परन्तु शास्त्रकारकी शैलीके अनुसार इसका यह अर्थ करना पड़ता है कि आठ समयके बाद और दो घड़ीके भीतरका समय ही अंतर्मुहूर्त है । परन्तु रूढ़ीमें तो जैसे पहले कहा है, इसका अर्थ दो घड़ीके भीतरका कोई भी समय समझा जाता है तो भी शास्त्रकारकी शैली ही मान्य की जाती है । जिस प्रकार यहाँ आठ समयकी बात बहुत लघु होनेसे शास्त्रमें स्थल स्थलपर उसका उल्लेख नहीं किया गया, इसी तरह आठ रुचक प्रदेशोंकी बात भी है, ऐसा मैं समझता हूँ, और इस बातकी भगवती, प्रज्ञापना, ठाणांग आदि सिद्धांत पुष्टि करते हैं।
इसके सिवाय मैं तो ऐसा समझता हूँ कि यदि शास्त्रकारने समस्त शास्त्रों में न होनेवाली भी किसी बातका उल्लेख शास्त्रमें किया हो तो यह भी कुछ चिंताकी बात नहीं है; उसके साथ ऐसा समझना चाहिये कि सब शास्त्रोंकी रचना करते हुए उस एक शास्त्रमें कही हुई बात शास्त्रकारके लक्षमें थी। और समस्त शास्त्रोंकी अपेक्षा कोई विचित्र बात किसी शास्त्रमें कही हो तो इसे अधिक मानने योग्य समझना चाहिये; कारण कि यह बात किसी विरले मनुष्यके लिए ही कही हुई होती है; बाकी कथन तो साधारण मनुष्यों के लिये ही होता है। ठीक यही बात आठ रुचक प्रदेशोंको लागू पड़ती है, इसलिये आठ रुचक प्रदेश बंधनरहित हैं, इस बातका निषेध नहीं किया गया है, यह मेरी समझ है। बाकीके चार अस्तिकायोंके प्रदेशोंके स्थलपर इन रुचक प्रदेशोंको छोड़कर जो केवलीके समुद्धात करनेका वर्णन है वह बहुतसी अपेक्षाओंसे जीवका मूल कर्मभाव नहीं, ऐसा समझानेके लिये कहा है। इस बातकी प्रसंग पाकर समागम होनेपर चर्चा करो तो ठीक होगा।
(२) दूसरा प्रश्न यह है कि ज्ञानमें कुछ ही न्यून चौदह पूर्वधारी तो अनंतनिगोदमें जाते हैं, और जघन्य ज्ञानवाले अधिकसे अधिक पन्द्रह भवोंमें मोक्ष जाते हैं। इस बातका समाधान आप कैसे करते हो!
इसका उत्तर जो मेरे हृदयमें है, उसे ही कह देता हूँ, कि यह जघन्य ज्ञान दूसरा है, और यह प्रसंग दूसरा है । जघन्य ज्ञान अर्थात् सामान्यरूपसे भी मूलवस्तुका ज्ञान, अतिशय न्यून होनेपर भी मोक्षका बीजरूप है, इसीलिये ऐसा कहा है। तथा 'एकदेश कम' ऐसा चौदह पूर्वधारीका ज्ञान एक मूलवस्तुके ज्ञानके सिवाय दूसरी सब वस्तुओंका जाननेवाला तो हो गया, परन्तु वह देह-मंदिरमें रहनेवाले शाश्वत पदार्थको नहीं जान सका; और यदि यह शाश्वत पदार्थको ही न जान सका तो फिर, जिस तरह लक्षके बिना फेंका हुआ तीर लक्ष्यार्थकी सिद्धि नहीं करता, उसी तरह यह भी व्यर्थ जैसा हो गया । जिस वस्तुके प्राप्त करनेके लिये जिनभगवानने चौदह पूर्वके ज्ञानका उपदेश किया है, यदि वह