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भीमद् राजचन्द्र
[पत्र १०६, १०७
जिसका माहात्म्य अपार है, ऐसी तीर्थंकरदेवकी वाणीकी भक्ति करो।
. १०६ बम्बई, आषाढ़ वदी ११ शनि. १९४६ (१) जिसका कोई अस्तित्व विद्यमान नहीं है, ऐसे बिना माँगेके इस जगत्को तो देखो।
बम्बई, आषाढ वदी १२ रवि. १९४६ (२) दृष्टि ऐसी स्वच्छ करो कि जिसमें सूक्ष्मसे सूक्ष्म दोष भी दिखाई दे सकें, और उन्हें देखते ही वे क्षय किये जा सकें।
. १०७ बम्बई (नागदेवी), आषाढ वदी १२ रवि. १९४६ इसके साथ आपकी योगवासिष्ठ पुस्तक भेज रहा हूँ। उपाधिका ताप शमन करनेके लिये यह शीतल चंदन है; इसके पढ़ते हुए आधि-व्याधिका आगमन संभव नहीं । इसके लिये मैं आपका उपकार मानता हूँ।
आपके पास कभी कभी आनेमें भी एक इसी विषयकी ही जिज्ञासा है। बहुत वर्षोंसे आपके अंतःकरणमें वास करती हुई ब्रह्मविद्याका आपके ही मुखसे श्रवण मिले, तो अपूर्व शांति हो। किसी भी मार्गसे कल्पित वासनाओंका नाश करके यथायोग्य स्थितिकी प्राप्तिके सिवाय दूसरी कोई भी इच्छा नहीं है। परन्तु व्यवहारके संबंधमें बहुतसी उपाधियाँ रहती हैं, इसलिये सत्समागमका जितना अवकाश चाहिये उतना नहीं मिलता । तथा मैं समझता हूँ कि आप भी बहुतसे कारणोंसे उतना समय देने में असमर्थ हैं, और इसी कारणसे बारबार अंतःकरणकी अंतिम वृत्ति आपको नहीं बता सकता; तथा इस संबंधमें अधिक बातचीत भी नहीं हो सकती । यह एक पुण्यकी न्यूनता ही है, दूसरा क्या !
व्यवहारिक संबंधमें आपके संबंधसे किसी तरहका भी लाभ उठानेकी स्वप्नमें भी इच्छा नहीं की। तथा आपके समान दूसरोंसे भी इसकी इच्छा नहीं की। एक ही जन्म, और वह भी थोड़े ही कालका, उसे प्रारब्धानुसार बिता देनेमें दीनता करना उचित नहीं; यह निश्चयसे प्रिय है। सहज-भावसे आचरण करनेकी अभ्यास-प्रणालिका कुछ (थोडेसे) वर्षांसे आरंभ कर रक्खी है, और इससे निवृत्तिकी वृद्धि हो रही है । इस बातको यहाँ बतानेका इतना ही हेतु है कि आप शंकारहित हों; तथापि पूर्वापरसे भी शंकारहित रहनेके लिये जिस हेतुसे मैं आपकी ओर देखता हूँ, उसे कह दिया है, और यह सन्देहहीनता संसारसे उदासीनभावको प्राप्त दशाकी सहायक होगी, ऐसा मान्य होनेसे (कहा है)।
योगवासिष्ठके संबंधों ( प्रसंग मिलनेपर ) आपसे कुछ कहना चाहता हूँ ।
जैनधर्मके आग्रहसे ही मोक्ष है, इस मान्यताको आत्मा बहुत समयसे भूल चुकी है। मुक्तभावमें (1) ही मोक्ष है, ऐसी मेरी धारणा है। इसलिये निवेदन है कि बातचीतके समय आप कुछ अधिक कहते हुए न रुकें।