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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र १०१, १०२
(२) बम्बई, आषाद सुदी १०, १९४६ उपाधिके कारण लिंगदेहजन्य ज्ञानमें थोड़ा बहुत फेरफार हुआ मालूम दिया । पवित्रात्मा जूठाभाईके उपरोक्त तिथिमें परन्तु दिनमें स्वर्गवासी होनेकी आज खबर मिली है।
इस पावन आत्माके गुणोंका क्या स्मरण करें ! जहाँ विस्मृतिको अवकाश नहीं, वहाँ स्मृतिका होना कैसे माना जाय !
(३)
देहधारी होनेके कारण इसका लौकिक नाम ही सत्य था; यह आत्म-दशारूपसे सच्चा वैराग्य ही था।
उसकी मिथ्या वासना बहुत क्षीण हो गई थी, वह वीतरागका परम रागी था, संसारसे परम जुगुप्सित था; भक्तिकी प्रधानता उसके अंतरंगमें सदा ही प्रकाशित रहा करती थी; सम्यक्भावपूर्वक वेदनीयकर्मके अनुभव करनेकी उसकी अद्भुत समता थी; मोहनीयकर्मकी प्रबलता उसके अंतरमें बहुत शून्य हो गई थी; मुमुक्षुता उसमें उत्तम प्रकारसे दैदीप्यमान हो उठी थी; ऐसे इस जूठाभाईकी पवित्रात्मा आज जगत्के इस भागका त्याग करके चली गई है । वह सहचारियोंसे मुक्त हो गई है । धर्मके पूर्ण आल्हादमें उसकी अचानक ही आयु पूर्ण हो गई।
अरेरे ! इस कालमें ऐसे धर्मात्माका जीवन छोटासा होना, यह कोई अधिक आश्चर्यकी बात नहीं । ऐसे पवित्रात्माकी स्थिति इस कालमें कहाँसे हो सकती है ! दूसरे साथियोंके ऐसे भाग्य कहाँ कि उन्हें ऐसे पवित्रात्माके दर्शनका लाभ अधिक कालतक मिलता रहे है जिसके अंतरमें मोक्षमार्गको देनेवाला सम्यक्त्व प्रकाशित हुआ था, ऐसे पवित्रात्मा जूठाभाईको नमस्कार हो ! नमस्कार हो!
१०२ बम्बई, आषाढ़ सुदी ११, १९४६ (१) उपाधिकी विशेष प्रबलता रहती है । यदि जीवन-कालमें ऐसे किसी योगके आनेकी संभावना हो तो मौनसे—उदासीनभावसे—प्रवृत्ति कर लेना ही श्रेयस्कर है ।
(२) भगवतीके पाठके विषयमें संक्षिप्त खुलासा नीचे दिया जाता है:सुह जोगं पडुछ अणारंभी, अमुह जोगं पडुचं आयारंभी परारंभी तदुभयारंभी ।
आत्मा शुभ योगकी अपेक्षासे अनारंभी; तथा अशुभ योगकी अपेक्षासे आत्मारंभी, परारंभी, और तदुभयारंभी ( आत्मारंभी और अनारंभी ) होती है।
यहाँ शुभका अर्थ पारिणामिक शुभ लेना चाहिये, ऐसी मेरी दृष्टि है । पारिणामिक अर्थात् जिस परिणामसे शुभ अथवा जैसा चाहिये वैसा रहना।
यहाँ योगका अर्थ मन, वचन और काया है । ( मेरी दृष्टिसे । )
शास्त्रकारका यह व्याख्यान करनेका मुख्य हेतु यथार्थ वस्तु दिखाने और शुभ योगमें प्रवृत्ति करनेका रहा होगा, ऐसा मैं समझता हूँ। पाठमें बहुत ही सुन्दर उपदेश दिया गया है।