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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ९७, ९८, १९, १००
१. कार्यप्रवृत्ति. २. सकारण साधारण भाषण. ३. दोनोंके अंत:करणकी निर्मल प्रीति. १. धर्मानुष्ठान. ५. वैराग्यकी तीव्रता.
बम्बई, ज्येष्ठ वदी ११ शुक्र. १९४६ तुझे अपना अस्तित्व माननेमें कौनसी शंका है ! यदि कोई शंका है तो वह ठीक नहीं ।
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बम्ब
९८ बम्बई, ज्येष्ठ वदी १२ शनि. १९४६ कल रातमें एक अद्भुत स्वप्न आया, जिसमें एक-दो पुरुषोंको इस जगत्की रचनाके स्वरूपका वर्णन किया; पहिले सब कुछ भुलाकर बादमें जगत्का दर्शन कराया । स्वप्नमें महावीरदेवकी शिक्षा प्रामाणिक सिद्ध हुई । इस स्वप्नका वर्णन बहुत सुन्दर और चमत्कारपूर्ण था इससे परमानंद हुआ। अब उसके संबंधमें अधिक फिर लियूँगा।
९९ बम्बई, आषाढ़ सुदी ४ शनि. १९४६ कलिकालने मनुष्यको स्वार्थपरायण और मोहके वश कर लिया है । जिसका हृदय शुद्ध और संतोंके बताये हुए मार्गसे चलता है वह धन्य है। सत्संगके बिना चढ़ी हुई आत्म-श्रेणी अधिकतर पतित हो जाती है ।
बम्बई, आषाढ़ सुदी ५ रवि. १९४६ जब यह व्यवहारोपाधि ग्रहण की थी उस समय इसके ग्रहण करनेका हेतु यह थाः- "भविष्यकालमें जो उपाधि अधिक समय लेगी, वह उपाधि यदि अधिक दुःखदायक भी होगी, तो भी उसे थोड़े समयमें भोग लेना, यही अधिक श्रेयस्कर है।"
ऐसा माना था कि यह उपाधि निम्नलिखित हेतुओंसे समाधिरूप होगी। "इस कालमें गृहस्थावासके विषयमें धर्मसंबंधी अधिक बातचीत न हो तो अच्छा।"
भले ही तुझे मुश्किल लगता हो, परन्तु इसी क्रमसे चल । निश्चय ही इसी क्रमसे चल । दुःखको सहन करके, क्रमको सँभालनेकी परिषह सहन करके, अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्गको सहन करके तू अचल रह । आजकल यह कदाचित् अधिकतर कठिन मालूम होगा, परन्तु अन्तमें वह कठिनता सरल हो जायगी । फंदेमें फँसमा मत । बारबार कहता हूँ कि फँसना मत । नाहक दुःखी होगा, और पश्चात्ताप करेगा। इसकी अपेक्षा अभीसे इन वचनोंको हृदयमें उतार-प्रीतिपूर्वक उतार ।
१. किसीके भी दोष न देख । जो कुछ होता है वह सब तेरे अपने ही दोषसे होता है, ऐसा मान ।