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पत्र ९४, ९५ ९६,] विविध पत्र आदि संग्रह-२३वाँ वर्ष
१९१ देहत्याग करनेकी-दुःख-स्थितिकी अपेक्षा अधिक भयंकर स्थिति हो जाती है; परन्तु ऐसा बहुत समयतक नहीं रहता; और ऐसा जब रहेगा तो अवश्य ही इस देहका त्याग कर दूंगा। परन्तु मैं असमाधिसे प्रवृत्ति न करूँ, ऐसी अबतककी प्रतिज्ञा बराबर कायम चली आई है।
बम्बई, ज्येष्ठ सुदी ४ गुरु. १९४६ हे परिचयी ! तुम्हें मैं अनुरोध करता हूँ कि तुम अपने आपमें योग्य होनेकी इच्छा उत्पन्न करो। मैं उस इच्छाको पूर्ण करनेमें सहायक होऊँगा ।
तुम मेरे अनुयायी हुए हो, और उसमें जन्मांतरके योगसे मुझे प्रधानपद मिला है इस कारण तुमने मेरी आज्ञाका अवलंबन करके आचरण करना उचित माना है।
___और मैं भी तुम्हारे साथ उचितरूपसे ही व्यवहार करनेकी इच्छा करता हूँ, किसी दूसरे प्रकारसे नहीं।
यदि तुम पहिले जीवन-स्थितिको पूर्ण करो, तो धर्मके लिए ही मेरी इच्छा करो। ऐसा करना मैं उचित समझता हूँ और यदि मैं करूँ तो धर्मपात्रके रूपमें मेरा स्मरण रहे, ऐसा होना चाहिये ।
हम तुम दोनों ही धर्ममूर्ति होनेका प्रयत्न करें । बड़े हर्षसे प्रयत्न करें। तुम्हारी गतिकी अपेक्षा मेरी गति श्रेष्ठ होगी, ऐसा अनुमान कर लिया है—" मतिमें "। मैं तुम्हें उसका लाभ देना चाहता हूँ; क्योंकि तुम बहुत ही निकटके संबंधी हो ।
यदि तुम उस लाभको उठानेकी इच्छा करते हो, तो दूसरी कलममें कहे अनुसार तुम ज़रूर करोगे, ऐसी मुझे आशा है।
तुम स्वच्छताको बहुत ही अधिक चाहना; वीतराग-भक्तिको बहुत ही अधिक चाहना; मेरी भक्तिको मामूली तौरसे चाहना। तुम जिस समय मेरी संगतिमें रहो, उस समय जिस तरह सब प्रकारसे मुझे आनन्द हो उस तरहसे रहना।
विद्याभ्यासी होओ। मुझसे विद्यायुक्त विनोदपूर्ण संभाषण करना। मैं तुम्हें योग्य उपदेश दूंगा । तुम उससे रूपसंपन्न, गुणसंपन्न और ऋद्धि तथा बुद्धिसंपन्न होगे। बादमें इस दशाको देखकर मैं परम प्रसन्न होऊँगा।
९५ बम्बई, ज्येष्ठ सुदी ११ शुक्र. १९४६. सबेरके ६ बजेसे ८ बजे तकका समय समाधिमें बीता था । अखाजीके बिचार बहुत स्वस्थ चित्तसे बाँचे, और मनन किये थे ।
९६ बम्बई, ज्येष्ठ सुदी १२ शनि. १९४६ कल रेषाशकरजी आनेवाले हैं, इसलिये तबसे निम्नलिखित क्रमको पार्थप्रभु रक्षित रक्खें: