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श्रीमद् राजचन्द्र
.[पत्र ९३
है । जबतक इच्छा और आशा अतृप्त रहती हैं, तबतक वह प्राणी अधोवृत्ति मनुष्य जैसा है । इच्छाको जय करनेवाला प्राणी ऊर्ध्वगामी मनुष्य जैसा है।
बम्बई, वैशाख वदी १२,१९४६ आज आपका एक पत्र मिला । यहाँ समय अनुकूल है । आपके यहाँकी समय-कुशलता चाहता हूँ।
आपको जो पत्र भेजनेकी मेरी इच्छा थी, उसे अधिक विस्तारसे लिखनेकी आवश्यकता होनेसेतथा ऐसा करनेसे उसकी उपयोगिता भी अधिक सिद्ध होनेसे-उसे विस्तारसे लिखनेकी इच्छा थी, और अब भी है । तथापि कार्योपाधिकी ऐसी प्रबलता है कि इतना शांत अवकाश भी नहीं मिलता, नहीं मिल सका, और अभी थोड़े समयतक मिलना भी संभव नहीं । आपको इस समयके बीचमें यह पत्र मिल गया होता तो बहुत ही अधिक उपयोगी होता, तो भी इसके बाद भी इसकी उपयोगिताको तो आप अधिक ही समझ सकेंगे । आपकी जिज्ञासाको कुछ शान्त करनेके लिये उस पत्रका संक्षिप्त सार दिया है।
यह आप जानते ही हैं कि इस जन्ममें आपसे पहिले मैं लगभग दो वर्षसे कुछ अधिक समय हुआ तबसे गृहस्थाश्रमी हुआ हूँ। जिसके कारण गृहस्थाश्रमी कहे जा सकते हैं उस वस्तुका और मेरा उस समयमें कुछ अधिक परिचय नहीं हुआ था; तो भी उससे तत्संबंधी कायिक, वाचिक और मानसिक वृत्ति मुझे यथाशक्य बहुत कुछ समझमें आई है और इस कारणसे उसका और मेरा संबंध असंतोषजनक नहीं हुआ। यह बतानेका कारण यही है कि साधारण तौरपर भी गृहस्थाश्रमका व्याख्यान देते हुए उस संबंध जितना अधिक अनुभव हो उतना अधिक ही उपयोगी होता है । मैं कुछ सांस्कारिक अनुभवके उदित होनेके ऊपरसे यह कह सकता हूँ कि मेरा गृहस्थाश्रम अबतक जिस प्रकार असंतोषजनक नहीं है, उसी तरह वह उचित संतोषजनक भी नहीं है। वह केवल मध्यम है; और उसके मध्यम होनेमें मेरी कुछ उदासनिवृत्ति भी सहायक है।
तत्त्वज्ञानकी गुप्त गुफाका दर्शन करनेपर अधिकतर गृहस्थाश्रमसे विरक्त होनेकी बात ही सूझा करती है और अवश्य ही उस तत्वज्ञानका विवेक भी इसे प्रगट हुआ था । कालकी प्रबल अनिष्टताके कारण उसको यथायोग्य समाधि-संगकी प्राप्ति न होनेसे उस विवेकको महाखेदके साथ गौण करना पड़ा; और सचमुच ! यदि ऐसा न हो सका होता तो उसके जीवनका ही अंत आ जाता । ( उसके अर्थात् इस पत्रके लेखकका)।
जिस विवेकको महाखेदके साथ गौण करना पड़ा है, उस विवेकमें ही चित्तवृत्ति प्रसन्न रहा करती है। उसकी बाह्य प्रधानता नहीं रक्खी जा सकती इसके लिये अकथनीय खेद होता है। तथापि जहाँ कोई उपाय नहीं है वहाँ सहनशीलता ही सुखदायक है, ऐसी मान्यता होनेसे चुप हो बैठा हूँ।
कभी कभी संगी और साथी भी तुच्छ निमित्त होने लगते हैं। उस समय उस विवेकपर किसी तरहका आवरण आता है, तो आत्मा बहुत ही घबड़ाती है । उस समय जीवन रहित हो जानेकी