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पत्र ९१, ९२]
विविध पत्र आदि संग्रह-२३वाँ वर्ष
जिन सो ही है आतमा, अन्य होई सो कर्म कर्म कटे सो जिनवचन, तत्त्वज्ञानिको मर्म ॥ ३ ॥ जब जान्यो निजरूपको, तब जान्यो सब लोक । नहिं जान्यो निजरूपको, सब जान्यो सो फोक ॥ ४ ॥ एहि दिशाकी मूढ़ता, है नहिं जिनमें भाव; जिनसें भाव बिनु कबू , नहिं छूटत दुखदाव ॥ ५॥ व्यवहारसें देव जिन, निहचेसें है आप; एहि बचनसें समज ले, जिनप्रवचनकी छाप ॥६॥ एहि नहीं है कल्पना, एही नहीं विभंग; जब जागेंगे आतमा, तब लागेंगे रंग ॥ ७॥
बम्बई, वैशाख वदी ४ गुरु. १९४६ मारग साचा मिल गया, छूट गये सन्देह; होता सो तो जल गया, भिन्न किया निज देह ॥१॥ समज पिठे सब सरल है, बिनू समज मुशकील; ये मुशकीली क्या कहूँ!
॥२॥ खोज पिंड ब्रह्माण्डका, पत्ता तो लग जाय; येहि ब्रह्माण्डि वासना, जब जावे तब.... ॥ ३॥ आप आपकुं भुल गया, इनसें क्या अंधेर ? समर समर अब हसत हैं, नहिं भुलेंगे फेर ॥४॥ जहाँ कलपना जलपना, तहाँ मानुं दुख छाई; मिटे कलपना जलपना, तब वस्तू तिन पाई ॥ ५॥ है' जीव ! क्या इच्छत हवे, हैं इच्छा दुखमूल, जब इच्छाका नाश तब, मिटे अनादी भूल ॥ ६॥ ऐसी कहाँसे मति भई, आप आप है नाहिं । आपनकुं जब भुल गये, अवर कहाँसे लाई, आप आप ए शोधसें, आप आप मिल जाय; आप मिलन नय बापको
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बम्बई वैशाख वदी ५ शुक्र. १९४६ इच्छारहित कोई भी प्राणी नहीं है। उसमें भी मनुष्य प्राणी तो विविध आशाओंसे घिरा हुआ १ 'क्या इच्छित ? खोवत सबै ' ऐसा भी पाठ है । अनुवादक ।