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श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ८१, ८२, ८३, ८४ ८. तीर्थादि प्रवास करनेकी उमंग रखनेवाला, ९. आहार, विहार, और निहारका नियम रखनेवाला, १०. अपनी गुरुताको छिपानेवाला,
-इन गुणोंसे युक्त कोई भी पुरुष महावीरके उपदेशका पात्र है-- सम्यक्दशाका पात्र है। फिर भी पहिलेके समान एक भी नहीं है।
बम्बई, पौष १९४६ प्रकाश भुवन निश्चयसे वह सत्य है । ऐसी ही स्थिति है । तुम इस ओर फिरो-उन्होंने रूपकसे इसे कहा है। उससे भिन्न भिन्न प्रकारसे ज्ञान हुआ है और होता है, परन्तु वह विभंगरूप है।
यह बोध सम्यक् है; तो भी यह बहुत ही सूक्ष्म है, और मोहके दूर होनेपर ही ग्राह्य हो पाता है।
सम्यक् बोध भी सम्पूर्ण स्थितिमें नहीं रहा है, फिर भी जो कुछ बचा है वह योग्य ही है। ऐसा समझकर अब योग्य मार्ग ग्रहण करो।
कारण मत ढूँढो, मना मत करो, तर्क-वितर्क न करो। वह तो ऐसा ही है। यह पुरुष यथार्थ वक्ता था । उनको अयथार्थ कहनेका कुछ भी कारण न था।
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बम्बई, माघ १९४६ कुटुम्बरूपी काजलकी कोठडीमें निवास करनेसे संसार बढ़ता है । उसका कितना भी सुधार करो तो भी एकांतवाससे जितना संसारका क्षय हो सकता है उसका सौवाँ भाग भी उस काजलके घरमें रहनेसे नहीं हो सकता; क्योंकि वह कषायका निमित्त है; और अनादिकालसे मोहके रहनेका पर्वत है। वह प्रत्येक अंतर गुफामें जाज्वल्यमान है । संभव है कि उसका सुधार करनेसे श्रद्धाकी उत्पत्ति हो जाय, इसलिये वहाँ अल्पभाषी होना, अल्पहासी होना, अल्पपरिचयी होना, अल्पप्रेमभाव दिखाना, अल्पभावना दिखानी, अल्पसहचारी होना, अल्पगुरु होना, और परिणामका विचार करना, यही श्रेयस्कर है।
___ ८३ बम्बई, माघ वदी २ शुक्र. सं. १९४६ जिनभगवान्के कहे हुए पदार्थ यथार्थ ही हैं । यही इस समय अनुरोध है।
बम्बई, फाल्गुन सुदी ८ गुरु. १९४६ व्यवहारोपाधि चाल है । रचनाकी विचित्रता सम्यग्ज्ञानका उपदेश करनेवाली है । तुम, वे लोग