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श्रीमद् राजवन्द्र
[पत्र ७७,७८
अर्थ-जीवनमें सहायभूत वैभव, लक्ष्मी आदि सांसारिक साधन अर्थ है। काम-नियमित रूपसे स्त्रीका सहवास करना काम है। मोक्ष-सब बंधनोंसे मुक्ति हो जाना मोक्ष है ।
धर्मको सबसे पहिले रखनेका कारण इतना ही है कि 'अर्थ' और ' काम ' ऐसे होने चाहिये जिनका मूल 'धर्म' हो।
इसीलिये अर्थ और कामको बादमें रक्खा गया है।
गृहस्थाश्रमी सर्वथा संपूर्ण धर्म-साधन करना चाहे तो यह उससे नहीं बन सकता । उस त्यागके लिये तो सर्वसंग-परित्याग ही आवश्यक है । गृहस्थके लिये भिक्षा आदि कृत्य भी योग्य नहीं हैं ।
और यदि गृहस्थाश्रम
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बम्बई, पौष १९४६ जिस कालमें आर्य-ग्रंथकर्ताओंद्वारा उपदेश किये हुए चार आश्रम देशके आभूषणके रूपसे वर्तमान थे, उस कालको धन्य है।
चारों आश्रमोंमें क्रमसे पहिला ब्रह्मचर्याश्रम, दूसरा गृहस्थाश्रम, तीसरा वानप्रस्थाश्रम, और चौथा सन्यासाश्रम है।
परन्तु आश्चर्यके साथ यह कहना पड़ता है कि यदि जीवनका ऐसा अनुक्रम हो तो इनका भोग किया जा सकता है। यदि कोई कुल सौ वर्षकी आयुवाला मनुष्य इन आश्रमोंके अनुसार चलता जाय तो वह मनुष्य इन सब आश्रमोंका उपभोग कर सकता है । इस आश्रमके नियमोंसे मालूम होता है कि प्राचीनकालमें अकाल मौतें कम होती होंगी।
बम्बई, पौष १९४६ प्राचीनकालमें आर्यभूमिमें चार आश्रम प्रचलित थे, अर्थात् ये आश्रम-धर्म मुख्यरूपसे फैले हुए थे। परमर्षि नाभिपुत्रने भारतमें निग्रंथ धर्मको जन्म देनेके पहिले उस कालके लोगोंको इसी आशयसे व्यवहारधर्मका उपदेश दिया था। कल्पवृक्षसे मनोवांछित पदार्थोकी प्राप्ति होनेका उस समयके लोगोंका व्यवहार अब घटता जा रहा था। अपूर्वज्ञानी ऋषभदेवजीने देख लिया कि भद्रता और व्यवहारकी अज्ञानता होनेके कारण उन लोगोंको कल्पवृक्षोंका सर्वथा हास हो जाना बहुत दुःखदायक होगा; इस कारण प्रभुने उनपर परम करुणाभाव लाकर उनके व्यवहारका क्रम नियत कर दिया।
जब भगवान् तीर्थकररूपसे विहार कर रहे थे उस समय उनके पुत्र भरतने व्यवहारशुद्धिके लिये उनके उपदेशका अनुसरणकर तत्कालीन विद्वानोंद्वारा चार वेदोंकी योजना कराई। उनमें चार आश्रमोंके भिन्न भिन्न धर्मों तथा उन चारों वर्गीकी नीलि-रीतिका समावेश किया । भगवान्ने जो परमकरुणासे लोगोंको भविष्यमें धर्मप्राप्ति होनेके लिये व्यवहार-शिक्षा और व्यवहार-मार्ग बताया था, उसमें भरतजीके इस कार्यसे परम सुगमता हो गई। . . . . . . . . . . . .. .: