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विविध पत्र आदि संग्रह
१९वाँ वर्ष .
वि. सं. १९४२
___ हे वादियो ! मुझे तुम्हारे लिये एकांतवाद ही ज्ञानकी अपूर्णताकी निशानी दिखाई देती है। क्योंकि जैसे नवसिखे कवि लोग काव्यमें जैसे तैसे दोषको छिपानेके लिये 'ही' शब्दका उपयोग करते हैं, वैसे ही तुम भी नवसिखे झानसे 'ही' अर्थात् निश्चयपनेको कहते हो।।
हमारा महावीर इस तरह कभी भी नहीं कहेगा । यही इसकी सत्कवि जैसी चमत्कृति है।
वचनामृत - वि. सं. १९४३ कार्तिक १ यह तो अखंड सिद्धांत मानो कि संयोग, वियोग, सुख, दुःख, खेद, आनंद, अप्रीति, अनुराग इत्यादि योग किसी व्यवस्थित कारणको लेकर ही होते हैं ।
२ एकांतभावी अथवा एकांत न्यायदोषको न मान बैठना ।
३ किसीका भी समागम करना योग्य नहीं। जबतक ऐसी दशा न हो तबतक. अवश्य ही सत्पुरुषोंके समागमका सेवन करना उचित है।
४ जिस कृत्यके अन्तमें दुःख है उसका सन्मान करते हुए प्रथम विचार करो।
५ पहिले तो किसीको अन्तःकरण नहीं देना; यदि दो तो फिर उससे भिन्नता नहीं रखना; यदि अंतःकरण देकर भी भिन्नता रक्खो तो अंतःकरणका देना न देनेके ही समान है।
६ एक भोगको भोगते हुए. भी कर्मकी वृद्धि नहीं करता, और एक भोगको नहीं भोगते हुए भी कर्मकी वृद्धि करता है, यह आश्चर्यकारक किन्तु समझने योग्य कथन है।
७ योगानुयोगसे बना हुआ कृत्य बहुत सिद्धि देता है। ८ हमने जिससे भेद-भावको पाया हो उसको सर्वस्व अर्पण करते हुए नहीं कना।
९ तब ही लोकापवाद सहन करना जब कि वे ही लोग स्वयं किये हुए अपवादका पुनः पश्चात्ताप करें।
१० हजारों उपदेशोंके वचन सुननेकी अपेक्षा उनमेंसे थोड़े वचनोंको विचारना ही विशेष कल्याणकारी :..:.
११ नियमपूर्वक किया हुआ काम शीघ्रतासे होता है, अभीष्ट सिद्धि देता है, और आनन्दका कारण होता है।