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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ६१ पदकी व्याख्या करनेके लिये भी हमारा यहाँ आना नहीं हुआ । हमारा आगमन तुम्हारे कल्याणके लिये हुआ है।"
कृपा करके शीघ्र कहें कि आप मेरा क्या कल्याण करेंगे ! इन आगन्तुक पुरुषोंका परिचय तो कराइये।
उसने इस प्रकार उनका परिचय देना शुरू कियाः
" इस वर्गमें ४-५-६-७-८-९-१०-१२ नंबरवाले मुख्यतः मनुष्य ही हैं। और वे सब उसी पदके आराधक योगी हैं जिस पदको तुमने प्रिय माना है "
" नंबर चौथेसे लेकर वह पद सुखरूप है; और बाकीकी जगत्-व्यवस्था जैसे हम मानते हैं उसी तरह वे भी मानते हैं। उस पदके प्राप्त करनेकी उनकी हार्दिक अभिलाषा है परन्तु वे प्रयत्न नहीं कर सकते; क्योंकि थोड़े समयतक उन्हें अंतराय है।"
अंतराय क्या ! करनेके लिये तत्पर हुए कि वह हुआ ही समझना चाहिये । वृद्धः-तुम जल्दी न करो । उसका समाधान तुम्हें अभी होनेवाला है, और हो ही जायगा। ठीक, आपकी इस बातको मैं माने लेता हूँ।
वृद्धः-नंबर "५" वाला कुछ प्रयत्न भी करता है, और सब बातोंमें वह नं. " " के ही अनुसार है।
नंबर "६" वाला सब प्रकारसे प्रयत्न करता है, परन्तु प्रमत्तदशासे उसके प्रयत्नमें मंदता आ जाती है।
नंबर “७" वाला सब प्रकारसे अप्रमत्तदशासे प्रयत्न करता है।
नंबर " ८-९-१०" वाले उसकी अपेक्षा क्रमसे उज्ज्वल हैं, किन्तु उसी जातिके हैं । नंबर "११" वाला पतित हो जाता है इसलिये उसका यहाँ आना नहीं हो सका । दर्शन होनेके लिये मैं बारहवेंमें ही (हाल हीमें उस पदको सम्पूर्ण देखने वाला हूँ) परिपूर्णता पानेवाला हूँ। आयु-स्थितिके पूरी होनेपर अपने देखे हुए पदमेंसे एक पदपर तुम मुझे भी देखोगे ।
पिताजी:-आप महाभाग्यशाली हैं। ऐसे नंबर कितने हैं ?
वृद्धः-प्रथमके तीन नंबर तुम्हें अनुकूल नहीं आयेंगे । ग्यारहवाँ नंबर भी अनुकूल नहीं होगा। नंबर “१३-१४" वाले तुम्हारे पास आवें ऐसा उनको कोई निमित्त नहीं रहा है। नंबर " १३" शायद आ जाय, परन्तु वैसा तुम्हारा पूर्व कर्म हो तो ही उसका आगमन हो सकता है, अन्यथा नहीं। चौदहवेंके आनेके कारण जाननेकी इच्छा भी मत करना । उसका कारण कुछ है ही नहीं।
( नेपथ्य) "तुम इन सबोंके अंतरमें प्रवेश करो। मैं सहायक होता हूँ।"
चलो । नंबर ४ से लेकर ११+१२ तकमें क्रम क्रमसे सुखकी उत्तरोत्तर चढ़ती दुई लहर उमद रही थी . . अधिक क्या कहें ! मुझे वह बहुत प्रिय लगा । और यही मुझे अपना लगा।