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पंत्र ६५] विविध पत्र आदि संग्रह-२३वाँ वर्ष
१७५ मेरी जन्मभूमिमें जितने वणिक् लोग रहते थे उन सबकी कुल-श्रद्धा यद्यपि भिन्न भिन्न थी फिर भी वह थोड़ी बहुत प्रतिमा-पूजनके अश्रद्धालुके ही समान थी, इस कारण उन लोगोंको ही मुझे सुधारना था । लोग मुझे पहिलेसे ही समर्थ शक्तिवाला और गाँवका प्रसिद्ध विद्यार्थी गिनते थे, इसलिये मैं अपनी प्रशंसाके कारण जानबूझकर ऐसे मंडलमें बैठकर अपनी चपल शक्ति दिखानेका प्रयत्न किया करता था । वे लोग कंठी बाँधनेके कारण बारबार मेरी हास्यपूर्वक टीका करते, तो भी मैं उनसे वाद-विवाद करता
और उन्हें समझानेका प्रयत्न किया करता था । परन्तु धीरे धीरे मुझे उन लोगोंके प्रतिक्रमणसूत्र इत्यादि पुस्तकें पढ़नेको मिलीं । उनमें बहुत विनयपूर्वक जगत्के समस्त जीवोंसे मित्रताकी भावना व्यक्त की गई थी, इससे मेरी प्रीति उनमें भी उत्पन्न हो गई और पहिलेमें भी रही । धीमे धीमे यह समागम बढ़ता गया; फिर भी स्वच्छ रहनेके और दूसरे आचार-विचार मुझे वैष्णवोंके ही प्रिय थे, तथा जगत्कर्ताकी भी श्रद्धा थी । इतनेमें कंठी टूट गई, और इसे दुबारा मैंने नहीं बाँधी । उस समय बाँधने न बाँधनेका कोई कारण मैंने नहीं ढूँढा था। यह मेरी तेरह वर्षकी वय-चर्या है । इसके बाद मैं अपने पिताकी दुकानपर बैठने लगा था, अपने अक्षरोंकी छटाके कारण कच्छ दरबारके महलमें लिखनेके लिये जब जब बुलाया जाता था तब तब वहाँ जाता था। दुकानपर रहते हुए मैंने नाना प्रकारकी मौज मजायें की हैं, अनेक पुस्तकें पढ़ी हैं, राम आदिके चरित्रोंपर कवितायें रची हैं, सांसारिक तृष्णामें की हैं, तो भी किसीको मैंने कम अधिक भाव नहीं कहा, अथवा किसीको कम ज्यादा तोलकर नहीं दिया; यह मुझे बराबर याद आ रहा है ।
(१) बम्बई, कार्तिक १९४६ दो भेदोंमें विभक्त धर्मको तीर्थकरने दो प्रकारका बताया है:१ सर्वसंगपरित्यागी.
२ देशपरित्यागी. सर्वपरित्यागी
भाव और द्रव्य उसके अधिकारी
पात्र, क्षेत्र, काल, भाव पात्र-वैराग्य आदि लक्षण, त्यागका कारण, और पारिणामिक भावकी ओर देखना । क्षेत्र-उस पुरुषकी जन्मभूमि और त्यागभूमि ये दोनों । काल-अधिकारीकी अवस्था, मुख्य चालू काल ।
भाव-विनय आदि; उसकी योग्यता शक्ति, गुरु उसको सबसे पहिले क्या उपदेश करे; दशवैकालिक आचारांग इत्यादिसंबंधी विचार; उसके नवदीक्षित होनेके कारणसे उसे स्वतंत्र विहार करने देनेकी आज्ञा इत्यादि।