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भीमद् राजचन्द्र
[३७ संयति मुनिधर्म - ३९. जो साधु जीव अर्थात् चैतन्यका स्वरूप नहीं जानता; जो अजीव अर्थात् जड़का स्वरूप नहीं जानता; अथवा इन दोनोंके तत्त्वको नहीं जानता, वह साधु संयमकी बात कहाँसे जान सकता है ?
४०. जो साधु चैतन्यका स्वरूप जानता है, जो जड़का स्वरूप जानता है, तथा जो इन दोनोंका स्वरूप जानता है; वह साधु संयमका स्वरूप भी जान सकता है। ..
४१. जब वह जीव और अजीव इन दोनोंको जान लेता है तब वह अनेक प्रकारसे सब जीवोंकी गति-अगतिको जान सकता है।
४२. जब वह सब जीवोंकी बहुत प्रकारसे गति-अगतिको जान जाता है तभी वह पुण्य, पाप, बंध और मोक्षको जान सकता है।
४३. जब वह पुण्य, पाप, बंध और मोक्षको जान जाता है, तभी वह मनुष्य और देवसंबंधी भोगोंकी इच्छासे निवृत्त हो सकता है । ... १४. जब वह देव और मनुष्यसंबंधी भोगोंसे निवृत्त होता है तभी सर्व प्रकारके बाह्य और अभ्यंतर संयोगका त्याग हो सकता है।
४५. जब वह बाह्याभ्यंतर संयोगका त्याग करता है तभी वह द्रव्य-भावसे मुंडित होकर मुनिकी दीक्षा लेता है।
४६. जब वह मुंडित होकर मुनिकी दीक्षा ले लेता है तभी वह उत्कृष्ट संवरकी प्राप्ति करता है, और उत्तम धर्मका अनुभव करता है।
१७. जब वह उत्कृष्ट संवरकी प्राप्ति करता है और उत्तम धर्मयुक्त होता है तभी वह जीवको मलीन करनेवाली और मिथ्यादर्शनसे उत्पन्न होनेवाली कर्मरजको दूर करता है।
१८. जब वह मिथ्यादर्शनसे उत्पन्न हुई कर्मरजको दूर कर देता है तभी वह सर्वज्ञानी और सम्यक्दर्शन युक्त हो जाता है।
- ४९. जब सर्वज्ञान और सर्वदर्शनकी प्राप्ति हो जाती है तभी वह केवली रागरहित होकर लोकालोकका स्वरूप जानता है।
. ५०. जब रागहीन होकर वह केवली लोकालोकका स्वरूप जान जाता है तभी वह फिर मन, वचन और कायके योगको रोककर शैलेशी अवस्थाको प्राप्त होता है। ___ ५१. जब वह योगको रोककर शैलेशी अवस्थाको प्राप्त हो जाता है तभी वह संब कर्मोका क्षयकर निरंजन होकर सिद्धगति प्राप्त करता है ।
३८ ववाणीआ, वैशाख सुदी ६ सोम. १९४५
सत्पुरुषोंको नमस्कार मुझे यहाँ आपका दर्शन लगभग सवा-मास पहले हुआ था। धर्मके संबंधमें जो थोड़ीसी