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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ५२, ५३ यदि शुद्ध उपयोगकी प्राप्ति हो गई तो फिर वह प्रतिसमय पूर्वोपार्जित मोहनीयको भस्मीभूत कर सकेगी; यह अनुभवगम्य वचन है ।
परन्तु जबतक मुझसे पूर्वोपार्जित कर्मका संबंध है तबतक मेरी किस तरहसे शांति हो ! यह विचारनेसे मुझे निम्न लिखित समाधान हुआ है।
... वि. सं. १९४५ जगत्में जो भिन्न भिन्न मत और दर्शन देखनेमें आते हैं वे सब दृष्टिके भेद मात्र हैं।
भिन्न भिन्न जो मत दिखाई दे रहे हैं वह केवल एक दृष्टिका ही भेद है; वे सब मानों एक ही तसके मूलसे पैदा हुए हैं ॥१॥
उस तत्त्वरूप वृक्षका मूल आत्मधर्म है जो धर्म आत्मधर्मकी सिद्धि करता है, वही उपादेय धर्म है ॥२॥
सबसे पहिले आत्माकी सिद्धि करनेके लिये ज्ञानका विचार करो; उस ज्ञानकी प्राप्तिके लिये अनुभवी गुरुकी सेवा करनी चाहिये, यही पण्डित लोगोंने निर्णय किया है ॥३॥
जिसकी आत्मामेंसे क्षण क्षणमें होनेवाली अस्थिरता और वैभाविक मोह दूर हो गया है, वही अनुभवी गुरु है ॥ ४॥
जिसके बाह्य और अभ्यंतर परिग्रहकी प्रन्थियाँ नहीं रही हैं उसे ही सरल दृष्टिसे परम पुरुष मानो ॥५॥
वि. सं. १९४५ १. जिसकी मनोवृत्ति निराबाधरूपसे बहा करती है, जिसके संकल्प-विकल्प मंद पड़ गये हैं, जिसके पाँच विषयोंसे विरक्त बुद्धिके अंकुर प्रस्फुटित हुए हैं, जिसने क्लेशके कारण निर्मूल कर दिये हैं, जो अनेकांत-दृष्टियुक्त एकांत-दृष्टिका सेवन किया करता है, जिसकी केवल यही शुद्धवृत्ति है, वह प्रतापी पुरुष जयवान होओ। २. हमें ऐसा बननेका प्रयत्न करना चाहिये ।
५२ भिन्न भिन्न मत देखिये, भेददृष्टिनो एह; एक तत्त्वना मूळमां, व्याप्या मानो तेह ॥ १॥ तेह तत्वरूपवृक्ष, आत्मधर्म छे मूळ; स्वभावनी सिद्धि करे, धर्म ते ज अनुकूळ ॥ २ ॥ प्रथम आत्मसिद्धि थवा, करिए शान विचार; अनुभवि गुरुने सेविये, बुधजननो निर्धार ॥ ३॥ क्षण क्षण जे अस्थिरता, अने विभाविकमोह; ते जैनामांयी गया, ते अनुभवि गुरु जोय ॥ ४ ॥ बाम तेम अभ्यन्तरे, ग्रंथ प्रन्यि नहिं होय; परम पुरुष तेने कहो, सरळ दृष्टिया जोय ॥ ५॥