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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ५६ .... : जैसा होनेकी मैंने कल्पना भी न की थी, तथा जिसके लिये मेरे विचारमें आनेवाला मेरा कोई प्रयत्न भी न था, तो भी अचानक फेरफार हुआ; कुछ दूसरा ही अनुभव हुआ; और यह अनुभव ऐसा था जो प्रायः न शास्त्रोंमें ही लिखा था, और न जड़वादियोंकी कल्पनामें ही था। यह अनुभव क्रमसे बढ़ा और बढ़कर अब एक 'तू ही, तू ही' का जाप करता है।
अब यहाँ समाधान हो जायगा। यह बात अवश्य आपकी समझमें आ जायगी कि मुझे भूतकालमें न भोगे हुए अथवा भविष्यकालीन भय आदिके दुःखमेंसे एक भी दुःख नहीं है । स्त्रीके सिवाय कोई दूसरा पदार्थ खास करके मुझे नहीं रोक सकता । दूसरा ऐसा कोई भी संसारी पदार्थ नहीं है जिसमें मेरी प्रीति हो, और मैं किसी भी भयसे अधिक मात्रामें घिरा हुआ भी नहीं हूँ । स्त्रीके संबन्धमें मेरी अभिलाषा कुछ और है और आचरण कुछ और है । यद्यपि एक पक्षमें उसका कुछ कालतक सेवन करना योग्य कहा गया है, फिर भी मेरी तो वहाँ सामान्य प्रीति-अप्रीति है, परन्तु दुःख यही है कि अभिलाषा न होनेपर भी पूर्वकर्म मुझे क्यों घेरे हुए हैं ? इतनेसे ही इसका अन्त नहीं होता, परन्तु इसके कारण अच्छे न लगनेवाले पदार्थोको देखना, सूंघना और स्पर्श करना पड़ता है, और इसी कारणसे प्रायः उपाधिमें रहना पड़ता है।।
. महारंभ, महापरिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ अथवा ऐसी ही अन्य बातें जगत्में कुछ भी नहीं, इस प्रकारका इनको भुला देनेका ध्यान करनेसे परमानंद रहता है। .
उसको उपरोक्त कारणोंसे देखना पड़ता है, यही महाखेदकी बात है । अंतरंगचर्या भी कहीं प्रगट नहीं की जा सकती; ऐसे पात्रोंकी मुझे दुर्लभता हो गई है, यही बस मेरा महादुःखीपना कहा जा सकता है।
वि. सं. १९४५ - यहाँ कुशलता है । आपकी कुशलता चाहता हूँ। आज आपका जिज्ञासु-पत्र मिला । इस जिज्ञासु-पत्रके उत्तरके बदलेमें जो पत्र भेजना चाहिये वह पत्र यह है:
इस पत्रमें गृहस्थाश्रमके संबंधमें अपने कुछ विचार आपके समीप रखता हूँ। इनके रखनेका हेतु केवल इतना ही है कि जिससे अपना जीवन किसी भी प्रकारके उत्तम क्रममें व्यतीत हो; और जबसे उस क्रमका आरंभ होना चाहिये वह काल अभी आपके द्वारा आरंभ हुआ है, अर्थात् आपको उस क्रमके बतानेका यह उचित समय है । इस तरह बताये हुए क्रमके विचार बहुत ही संस्कारपूर्ण हैं इसलिये इस पत्रद्वारा प्रकट हुए हैं । वे आपको तथा किसी भी आत्मोन्नति अथवा प्रशस्त क्रमकी इच्छा रखनेवालेको अवश्य ही बहुत उपयोगी होंगे, ऐसी मेरी मान्यता है । . . .. तत्त्वज्ञानकी गहरी गुफाका यदि दर्शन करने जाँय तो वहाँ नेपथ्यमेंसे यही ध्वनि निकलेगी कि तुम कौन हो ! कहांसे आये हो ? क्यों आये हो ! तुम्हारे पास यह सब क्या है ! क्या तुम्हें अपनी प्रतीति हैं ? क्या तुम विनाशी, अविनाशी अथवा कोई तीसरी ही राशि हो ! इस तरहके अनेक प्रश्न उस ध्वनिसे हृदयमें प्रवेश करेंगे; और जब आत्मा इन प्रश्नोंसे घिर गई तो फिर दूसरे विचारोंको बहुत ही थोड़ा अवकाश रहेगा। यद्यपि इन्हीं विचारोंसे ही अंतमें सिद्धि है। इन्हीं विचारोंके विवेकसे जिस अव्याबाध