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३७ संयति मुनिधर्म ] विविध पत्र आदि संग्रह-१२वा वर्ष
२२. तत्त्वज्ञानको पाये हुए मनुष्य केवल छह कायके जीवोंके रक्षणके लिये केवल उतने ही परिग्रहको रखते हैं, वैसे तो वे अपनी देहमें भी ममत्व नहीं करते । (यह देह मेरी नहीं, इस उपयोगमें ही रहते हैं।)
२३. आश्चर्य ! जो निरंतर तपश्चर्यारूप है ! और जिसका सब सर्वज्ञोंने विधान किया है ऐसे संयमके अविरोधरूप और जीवनको टिकाये रखनेके लिये ही एक बार आहार ले ।
२४. रात्रिमें त्रस और स्थावर-स्थूल और सूक्ष्म-जातिके जीव दिखाई नहीं देते इसलिये वह उस समय आहार कैसे कर सकता है ! - २५. जहाँ पानी और बीजके आश्रित प्राणी पृथ्वीपर फैले पड़े हों उनके ऊपरसे जब दिनमें भी चलनेका निषेध किया गया है तो फिर संयमी रात्रिमें तो भिक्षाके लिये कहाँसे जा सकता है ?
२६. इन हिंसा आदि दोषोंको देखकर ज्ञातपुत्र भगवान्ने ऐसा उपदेश किया है कि निग्रंथ साधु रात्रिमें किसी भी प्रकारका आहार ग्रहण न करे।
२७. श्रेष्ठ समाधियुक्त साधु मनसे, वचनसे और कायसे स्वयं पृथ्वीकायकी हिंसा न करे; दूसरोंसे न करावे, और करते हुएका अनुमोदन न करे ।
२८. पृथ्वीकायकी हिंसा करते हुए उस पृथिवीके आश्रयमें रहनेवाले चक्षुगम्य और अचक्षुगम्य विविध त्रस प्राणियोंका घात होता है
२९. इसलिये, ऐसा जानकर दुर्गतिको बढ़ानेवाले पृथ्विकायके समारंभरूप दोषका आयुपर्यंतका त्याग करे।
३०. सुसमाधियुक्त साधु मन, वचन और कायसे स्वयं जलकायकी हिंसा न करे, दूसरोंसे न करावे, और करनेवालेका अनुमोदन न करे । ___३१. जलकायकी हिंसा करते हुए जलके आश्रयमें रहनेवाले चक्षुगम्य और अचक्षुगम्य त्रस जातिके विविध प्राणियोंकी हिंसा होती है
३२. इसलिये, ऐसा जानकर कि जलकायका समारंभ दुर्गतिको बढ़ानेवाला दोष है, इसका आयुपर्यंतके लिये त्याग कर दे ।
३३. मुनि अग्निकायकी इच्छा न करे; यह जीवके घात करनेमें सबसे भयंकर और तीक्ष्ण शस्त्र है।
___३४. अग्नि पूर्व, पश्चिम, ऊर्ध्व, कोणमें, नीचे, दक्षिण और उत्तर इन सब दिशाओंमें रहते हुए जीवोंको भस्म कर डालती है ।
३५. यह अग्नि प्राणियोंका घात करनेवाली है, ऐसा संदेह राहत माने, और इस कारण उसे संयति दीपकके अथवा तापनेके लिये भी न जलावे ।
३६. इस कारण मुनि दुर्गतिके दोषको बढ़ानेवाले इस अनिकायके समारंभको आयुपर्यंत न करे।
३७. पहिले ज्ञान और पीछे दया (ऐसा अनुभव करके ) सब संयमी साधु रहें। अज्ञानी (संयममें ) क्या करेगा, क्योंकि वह तो कल्याण अथवा पापको ही नहीं जानता।।
३८. श्रवण करके कल्याणको जानना चाहिये, और पापको जानना चाहिये। दोनोंका श्रवण कर उन्हें जाननेके बाद जो श्रेयस्कर हो उसको आचरण करना चाहिये।