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... श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ४० ___ अ. कई एक निर्णयोंके ऊपरसे मैं यह मानने लगा हूँ कि इस कालमें भी कोई कोई महात्मा पहले भवको जातिस्मरण ज्ञानसे जान सकते हैं। और यह जानना कल्पित नहीं परन्तु सम्यक् होता है। उत्कृष्ट संवेग, ज्ञान-योग और सत्संगसे भी यह ज्ञान प्राप्त होता है-अर्थात् पूर्वभव प्रत्यक्ष अनुभवमें आ जाता है।
जबतक पूर्वभव अनुभवगम्य न हो तबतक आत्मा भविष्यकालके लिये शंकितभावसे धर्मप्रयत्न किया करती है, और ऐसा सशंकित प्रयत्न योग्य सिद्धि नहीं देता।
__ आ. 'पुनर्जन्म है ' इस विषयमें जिस पुरुषको परोक्ष अथवा प्रत्यक्षसे निःशंकता नहीं हुई उस पुरुषको आत्मज्ञान प्राप्त हुआ है ऐसा शास्त्र-शैली नहीं कहती । पुनर्जन्मकी सिद्धिके संबंधमें श्रुतज्ञानसे प्राप्त हुआ जो आशय मुझे अनुभवगम्य हुआ है उसे थोड़ासा यहाँ कहता हूँ:
(१) 'चैतन्य' और 'जड़' इन दोनोंको पहिचाननेके लिये उन दोनोंमें जो भिन्न भिन्न गुण हैं उन्हें पहिचाननेकी पहिली आवश्यकता है। तथा उन भिन्न भिन्न गुणोंमें भी जो सबसे मुख्य भिन्नता दिखाई देती है वह यह है कि 'चैतन्य' में 'उपयोग' ( अर्थात् जिससे किसी वस्तुका बोध होता है वह गुण) रहता है, और 'जड़ में वह नहीं रहता । यहाँ शायद कोई यह शंका करे कि 'जड़' में शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध शक्तियाँ होती हैं, और चैतन्यमें ये शक्तियाँ नहीं पायी जातीं, परन्तु यह भिन्नता आकाशकी अपेक्षा लेनेसे समझमें नहीं आ सकती; क्योंकि निरंजन, निराकार, अरूपी इत्यादि कई एक गुण ऐसे हैं जो आकाशकी तरह आत्मामें भी रहते हैं, इसलिये आकाशको आत्माके सदृश गिना जा सकता है, क्योंकि फिर इन दोनोंमें कोई भिन्न धर्म न रहा । इसका समाधान यह है कि इन दोनोंमें अन्तर है, और वह अन्तर आत्मामें पहिले कहा हुआ ' उपयोग' नामक गुण बताता है, क्योंकि वह गुण आकाशमें नहीं है । अब जड़ और चैतन्यका स्वरूप समझना सुगम हो जाता है।
(२) जीवका मुख्य गुण अथवा लक्षण 'उपयोग' (किसी भी वस्तुसंबंधी भावना; बोध;ज्ञान) है। जिस जीवात्मामें अशुद्ध और अपूर्ण उपयोग रहता है वह जीवात्मा ('व्यवहारनयकी अपेक्षासे'क्योंकि प्रत्येक आत्मा अपने शुद्ध नयसे तो परमात्मा ही है, परन्तु जहाँतक वह अपने स्वरूपको यथार्थ नहीं समझी वहाँतक जीवात्मा छपस्थ रहता है )-परमात्मदशामें नहीं आया। जिसमें शुद्ध और सम्पूर्ण यथार्थ उपयोग रहता है वह परमात्मदशाको प्राप्त हुई आत्मा मानी जाती है । अशुद्ध उपयोगी होनेसे ही आत्मा कल्पित ज्ञान ( अज्ञान ) को सम्यग्ज्ञान मान रही है और उसे सम्यग्ज्ञानके बिना कुछ भी पुनर्जन्मका यथार्थ निश्चय नहीं हो पाता । अशुद्ध उपयोग होनेका कुछ भी निमित्त होना चाहिये । यह निमित्त अनुपूर्वीसे चले आते हुए बाह्यभावसे ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गल हैं। (इस कर्मका यथार्थ स्वरूप सूक्ष्मतासे समझने योग्य है, क्योंकि आत्माको ऐसी दशामें किसी भी निमित्तसे ही होनी चाहिये । और वह निमित्त जबतक यथार्थ रीतिसे समझमें न आवे तबतक जिस रास्तेसे जाना है उस रास्तेपर आना ही हो नहीं सकता। ) जिसका परिणाम विपर्यय हो उसका प्रारंभ अशुद्ध उपयोगके बिना नहीं होता, और अशुद्ध उपयोग भूतकालके किसी भी संबंधके बिना नहीं होता । हम यदि वर्तमानकालमेंसे एक एक पलको निकालते जायें और उसपर ध्यान देते रहें, तो