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२१वाँ वर्ष
२१ भौंच, मंगसिर सुदी ३ गुरु. १९४५ पत्रसे सब समाचार विदित हुए । अपराध नहीं, परन्तु परतंत्रता है । निरन्तर सत्पुरुषकी कृपादृष्टिकी इच्छा करो और शोकरहित रहो, यह मेरा परम अनुरोध है, उसे स्वीकार करना । विशेष न लिखो तो भी इस आत्माको उस बातका ध्यान है । बड़ोंको खुशीमें रक्खो । सच्चा धीरज धरो।
( पूर्ण खुशीमें हूँ।)
२२ भड़ौंच, मंगसिर सुदी १२, १९४५ जगत्में रागहीनता विनय और सत्पुरुषकी आज्ञा ये न मिलनेसे यह आत्मा अनादिकालसे भटकती रही, परन्तु क्या करें लाचारी थी। जो हुआ सो हुआ । अब हमें पुरुषार्थ करना उचित है। जय होओ।
२३ बम्बई, मंगसिर वदी ७ भौम. १९४५
जिनाय नमः मेरी ओर मोह-दशा न रक्खो । मैं तो एक अल्पशक्तिवाला पामर मनुष्य हूँ । सृष्टिमें अनेक सत्पुरुष छिपे पड़े, हैं और विदितरूपसे भी हैं, उनके गुणका स्मरण करो, उनका पवित्र समागम करो और आत्मिक लाभसे मनुष्य भवको सार्थक करो, यही मेरी निरंतर प्रार्थना है ।
२४ बम्बई, मंगसिर वदी १२ शनि. १९४५ मैं समयानुसार आनंदमें हूँ। आपका आत्मानंद चाहता हूँ। एक बड़ा निवेदन यह करना है कि जिससे हमेशा शोककी न्यूनता और पुरुषार्थकी अधिकता प्राप्त हो, इस तरह पत्र लिखनेका प्रयत्न करते रहें।
वि. सं. १९४५ मंगसिर तुम्हारा प्रशस्तभाव-भूषित पत्र मिला । जिस मार्गसे आत्मत्व प्राप्त हो उस मार्गकी खोज करो। तुम मुझपर प्रशस्तभाव लाओ ऐसा मैं पात्र नहीं, तो भी यदि इस तरहसे तुमको आत्म-शांति मिलती हो तो करो।