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भीमद् राजवन्द्र
[पत्र २८
२. जिसे धर्मका बोध हुआ है, उसे फिर भी अपनी हालतका दुःख हो तो उसे यथाशक्य उपाधि करके कमानेके लिये प्रयत्न करना चाहिये।
(जिसकी सर्व-संग-परित्यागी होनेकी अभिलाषा है उसे इन नियमोंसे संबंध नहीं।)
३. जिससे जीवन सुखसे बीत सके इतनी यथेष्ट लक्ष्मीके होनेपर भी जिसका मन लक्ष्मीके लिये बहुत तड़फता रहता हो उसे सबसे पहिले अपने आपसे लक्ष्मीकी वृद्धि करनेका कारण पूछना चाहिये । यदि इसके उत्तरमें परोपकारके सिवाय कुछ दूसरा उत्तर आता हो, अथवा पारिणामिक लाभको हानि पहुँचनेके अतिरिक्त दूसरा कुछ उत्तर आता हो तो मनको समझा लेना चाहिये । ऐसा होनेपर भी यदि मनको समझाया न जा सके तो अमुक मर्यादा बाँधनी चाहिये । वह मर्यादा ऐसी होनी चाहिये जो सुखका कारण हो ।
४. अन्तमें आर्तध्यान करनेकी जरूरत पड़े, ऐसी परिस्थिति खड़ी कर लेनेकी अपेक्षा अर्थसंग्रह करना कहीं अच्छा है।
५. जिसका जीवन-निर्वाह ठीक प्रकारसे चल रहा हो, उसे किसी भी प्रकारके अनाचारसे लक्ष्मी प्राप्त न करनी चाहिये । जिस कामसे मनको सुख नहीं होता, उससे कायाको और वचनको भी सुख नहीं होता । अनाचारसे मन सुखी नहीं होता, यह एक ऐसी बात है जो सब किसीके अनुभवमें आ सकती है।
नीचेके दोष नहीं लगने देने चाहिये:१. किसीके साथ महा विश्वासघात. ८. अत्याचारपूर्ण भाव कहना. २. मित्रके साथ विश्वासघात.
९. निर्दोषीको अल्प मायासे भी ठग लेना. ३. किसीकी धरोहर खा जाना.
१०. न्यूनाधिक तोल देना. ४. व्यसनका सेवन करना.
११. एकके बदले दूसरा अथवा मिश्रण ५. मिथ्या दोषारोपण.
करके दे देना. ६. झूठा दस्तावेज़ लिखाना.
१२. हिंसायुक्त धंधा. ७. हिसाबमें चूकना.
१३. रिश्वत अथवा अदत्तादान. इन मार्गोसे कुछ भी कमाना नहीं । यह मानों जीवन-निर्वाहसंबंधी सामान्य व्यवहारशुद्धि कही।
२८ ववाणीआ, माघ वदी ७ शुक्र. १९४५
सत्पुरुषोंको नमस्कार आत्माको इस दशाको जैसे बने वैसे रोककर योग्यताके आधीन होकर उन सबोंके मनका समाधान करके, इस संगतिकी इच्छा करो, और यह संगति अथवा यह पुरुष उस परमात्म-तत्त्वमें लीन रहे, यही आशीर्वाद देते रहा करो । तन-मन-वचन और आत्म-स्थितिको सँभालना । धर्मध्यान करते रहनेका मेरा अनुरोध है।