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पत्र २०]
विविध पत्र आदि संग्रह-२०वाँ वर्ष
(२)
अन्तिम अनुरोध अब इस विषयको मैंने संक्षेपमें पूर्ण किया । केवल प्रतिमासे ही धर्म है, ऐसा कहनेके लिये अथवा प्रतिमाके पूजनकी सिद्धिके लिये मैंने इस लघु ग्रंथमें कलम नहीं चलाई । प्रतिमा-पूजनके लिये मुझे जो जो प्रमाण मालूम हुए थे मैंने उन्हें संक्षेपमें कह दिया है । उसमें उचित और अनुचित देखनेका काम शास्त्र-विचक्षण और न्यायसंपन्न पुरुषोंका है । और बादमें जो प्रामाणिक मालूम हो उस तरह स्वयं चलना और दूसरोंको भी उसी तरह प्ररूपण करना यह उनकी आत्माके ऊपर आधार रखता है । इस पुस्तकको मैं प्रसिद्ध नहीं करता; क्योंकि जिस मनुष्यने एक बार प्रतिमा-पूजनका विरोध किया हो, फिर यदि वही मनुष्य उसका समर्थन करे, तो इससे प्रथम पक्षवालोंके लिये बहुत खेद होता है और यह कटाक्षका कारण होता है । मैं समझता हूँ कि आप भी मेरे प्रति थोड़े समय पहिले ऐसी ही स्थितिमें आ गये थे । यदि उस समय इस पुस्तकको मैं प्रसिद्ध करता तो आपका अंतःकरण अधिक दुखता और उसके दुखानेका निमित्त मैं ही होता, इसलिये मैंने ऐसा नहीं किया। कुछ समय बीतनेके बाद मेरे अंतःकरणमें एक ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि तेरे लिये उन भाईयोंके मनमें संक्लेश विचार आते रहेंगे; तथा तूने जिस प्रमाणसे इसे माना है, वह भी केवल एक तेरे ही हृदयमें रह जायगा, इसलिये उसकी सत्यतापूर्वक प्रसिद्धि अवश्य करनी चाहिये । इस विचारको मैंने मान लिया । तब उसमेंसे बहुत ही निर्मल जिस विचारकी प्रेरणा हुई, उसे संक्षेपमें कह देता हूँ। प्रतिमाको मानो, इस आग्रहके लिये यह पुस्तक बनानेका कोई कारण नहीं है, तथा उन लोगोंके प्रतिमाको माननेसे मैं कुछ धनवान् तो हो ही नहीं जाऊँगा । इस संबंधमें मेरे जो जो विचार थे