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७ वचनामृत] विविध पत्र आदि संग्रह-१९वाँ वर्ष
१२५ ८३ स्त्रीका कोई अंग लेशमात्रं भी सुखदायक नहीं तो भी उसे मेरी देह भोगती है। ८४ देह और देहके लिये ममत्व यह मिथ्यात्वका लक्षण है। ८५ अभिनिवेशके उदयमें प्ररूपणा न हो, उसको मैं ज्ञानियोंके कहनेसे महाभाग्य कहता हूँ। ८६ स्याद्वादशैलीसे देखनेपर कोई भी मत असत्य नहीं ठहरता । ८७ ज्ञानीजन स्वादके त्यागको आहारका सच्चा त्याग कहते हैं। ८८ अभिनिवेशके समान एक भी पाखंड नहीं है।
८९ इस कालमें ये बातें बढ़ी हैं:-बहुतसे मत, बहुतसे तत्त्वज्ञानी, बहुतसी माया, और बहुतसा परिग्रह ।
९० यदि तत्त्वाभिलाषासे मुझसे पूछो तो मैं तुम्हें अवश्य रागरहित धर्मका उपदेश दे सकता हूँ।
९१ जिसने समस्त जगत्के शिष्य होनेरूप दृष्टिको नहीं जाना वह सद्गुरु होने योग्य नहीं। ९२ कोई भी शुद्धाशुद्ध धर्म-क्रिया करता हो तो उसको करने दो। ९३ आत्माका धर्म आत्मामें ही है। ९४ मुझपर सब सरलभावसे आज्ञा चला तो मैं खुशी हूँ।
९५ मैं संसारमें लेशमात्र भी रागयुक्त नहीं तो भी उसीको भोगता हूँ, मैंने कुछ त्याग नहीं किया।
९६ निर्विकारी दशापूर्वक मुझे अकेला रहने दो।
९७ महावीरने जिस ज्ञानसे जगत्को देखा है वह ज्ञान सब आत्माओंमें है, परन्तु उसका आविर्भाव करना चाहिये।
९८ बहुत ऊब जाओ तो भी महावीरकी आज्ञाका भंग नहीं करना । चाहे जैसी शंका हो तो भी मेरी तरफसे वीरको संदेहरहित मानना ।
___९९ पार्श्वनाथस्वामीका ध्यान योगियोंको अवश्य स्मरण करना चाहिये । निश्चयसे नागकी छत्र-छायाके समयका यह पार्श्वनाथ कुछ और ही था !
१०० गजसुकुमारकी क्षमा, और राजीमती जो रहनेमीको बोध देती है वह बोध मुझे प्राप्त होओ।
१०१ भोग भोगनेतक (जहाँतक उस कर्मका उदय है वहाँतक) मुझे योग ही प्राप्त रहो! १०२ मुझे सब शास्त्रोंमें एक ही तत्त्व मिला है, यदि मैं ऐसा कहूँ तो यह मेरा अहंकार नहीं है। १०३ न्याय मुझे बहुत प्रिय है। वीरकी शैली यही न्याय है, किन्तु इसे समझना दुर्लभ है । १०४ पवित्र पुरुषोंकी कृपादृष्टि ही सम्यग्दर्शन है।
१०५ भर्तृहरिका कहा हुआ भाव विशुद्ध-बुद्धिसे विचारनेसे ज्ञानकी बहुत उर्ध्व-दशा होनेतक रहता है।
१०६ मैं किसी भी धर्मसे विरुद्ध नहीं, मैं सब धर्मोको पालता हूँ और तुम सब धर्मोसे विरुद्ध हो ऐसा कहनेमें मेरा आशय उत्तम है।