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१३४ श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र २० सकी । मनुष्यत्व, आर्यदेश, उत्तम कुल, शारीरिक संपत्ति ये अपेक्षित साधन हैं, और अंतरंग साधन केवल मुक्त होनेकी सच्ची अभिलाषा ही है।
यदि आ-मामें इस प्रकारकी सुलभ-बोध प्राप्त करनेकी योग्यता आ गई हो, तो जो पुरुष मुक्त हुए हैं, अथवा वर्तमानमें मुक्तपनेसे अथवा आत्मज्ञान दशासे विचरते हैं उनके उपदेश किये हुए मार्गमें किसी भी प्रकारके संदेहसे रहित होकर श्रद्धाशील हो सकते हैं।
जिसमें राग, द्वेष, और मोह नहीं वही पुरुष तीनों दोषोंसे रहित मार्गका उपदेश कर सकता है, अथवा तो उसी पद्धतिसे निशंकित होकर आचरण करनेवाले सत्पुरुष उस मार्गका उपदेश दे सकते हैं।
सब दर्शनोंकी शैलीका विचार करनेसे राग, द्वेष और मोहरहित पुरुषका उपदेश किया हुआ निम्रन्थ दर्शन ही विशेषरूपसे मानने योग्य है।
इन तीन दोपोंसे रहित, महा अतिशयसे प्रतापशाली तीर्थकरदेवने मोक्षके कारणरूप जिस धर्मका उपदेश किया है, उस धर्मको चाहे जो मनुष्य स्वीकार करते हों, परन्तु वह एक पद्धतिसे होना चाहिये, यह बात शंकारहित है।
___ उस धर्मका अनेक मनुष्य अनेक पद्धतियोंसे प्रतिपादन करते हों और उससे मनुष्योंमें परस्पर मतभेदका कोई कारण होता हो, तो उसमें तीर्थंकरदेवकी एक पद्धतिका दोष नहीं है, परन्तु उसमें उन मनुष्योंकी समझ शक्तिका ही दोष गिना जा सकता है ।
इस रीतिसे हम निग्रंथ मतके प्रवर्तक हैं, इस प्रकार भिन्न भिन्न मनुष्य कहते हैं, परन्तु उनमेंसे वे मनुष्य ही प्रमाणभूत गिने जा सकते है जो वीतरागदेवकी आज्ञाके सत्भावसे प्ररूपक एवं प्रवर्तक हों।
___ यह काल दुःषम नामसे प्रख्यात है। दुःषमकाल उसे कहते हैं कि जिस कालमें मनुष्य महादुःखसे आयु पूर्ण करते हों, तथा जिसमें धर्माराधनारूप पदार्थोके प्राप्त करनेमें दुःषमता अर्थात् महाविघ्न आते हों।
इस समय वीतरागदेवके नामसे जैनदर्शनमें इतने अधिक मत प्रचलित हो गये हैं कि वे मत केवल मतरूप ही रह गये हैं। परन्तु जबतक वे वीतरागदेवकी आज्ञाका अवलंबन करके प्रवृत्ति न करते हों तबतक वे सत्रूप नहीं कहे जा सकते।
इन मतोंके प्रचलित होनेमें मुझे इतने मुख्य कारण मालूम होते हैं:-(१) अपनी शिथिलताके कारण बहुतसे पुरुषोंद्वारा निर्ग्रथदशाके प्राधान्यको घटा देना । (२) परस्पर दो आचार्योंका वादविवाद । (३) मोहनीयकर्मका उदय और तदनुरूप आचरणका हो जाना । (४)एक बार अमुक मत ग्रहण हो जानेके बाद उस मतसे छूटनेका यदि मार्ग मिल भी रहा हो तो भी उसे बोधिदुर्लभताके कारण ग्रहण न करना । (५) मतिकी न्यूनता । (६) जिसपर राग हो उसकी आज्ञामें चलनेवाले अनेक मनुष्य । (७) दुःषमकाल, और (८) शाल-बानका घट जाना।
यदि इन सब मतोंके संबंधमें समाधान हो जाय और सब निःशंकताके साथ वीतरागकी आहानुरूप मार्गपर चलें तो महाकल्याण हो, परन्तु ऐसा होनेकी संभावना कम है। जिसे मोक्षकी