________________
१२६
भीमद् राजचन्द्र
[७ वचनामृत १०७ अपने माने हुए धर्मका मुझे किस प्रमाणसे उपदेश करते हो, यह जानना मुझे जरूरी है।
१०८ शिथिल बंधन दृष्टिसे नीचे आते आते ही बिखर जाता है । ( यदि निर्जरा करना आता हो तो-)
१०९ मुझे किसी भी शास्त्रमें शंका न हो। ११० ये लोग दुःखके मारे हुए वैराग्य लेकर जगत्को भ्रममें डालते हैं । १११ इस समय मैं कौन हूँ इसका मुझे पूर्ण भान नहीं है । ११२ तू सत्पुरुषका शिष्य है। ११३ यही मेरी आकांक्षा है। ११४ मुझे गजसुकुमार जैसा कोई समय प्राप्त होओ। ११५ कोई राजीमती जैसा समय प्राप्त होओ।
११६ सत्पुरुष कहते नहीं, करते नहीं, तो भी उनकी सत्पुरुषता उनकी निर्विकार मुख-मुद्रामें झलकती है।
११७ संस्थानविचयध्यान पूर्वधारियोंको प्राप्त होता होगा, ऐसा मानना योग्य मालूम होता है। तुम भी उसका ध्यान करो।
११८ आत्माके समान और कोई देव नहीं। ११९ भाग्यशाली कौन ? अविरति सम्यग्दृष्टि अथवा विरति ? १२० किसीकी आजीविका नहीं तोड़ना।
बम्बई, कार्तिक १९४३ १ प्रमादके कारण आत्मा अपने प्राप्त हुए स्वरूपको भूल जाता है। २ जिस जिस कालमें जो जो करना है उस सबको सदा उपयोगमें रक्खे रहो। ३ फिर उसकी क्रमसे सिद्धि करो।
४ अल्प आहार, अल्प विहार, अल्प निद्रा, नियमित वाणी, नियमित काया और अनुकूल स्थान, ये मनको वश करनेके लिये उत्तम साधन हैं।
५ श्रेष्ठ वस्तुकी जिज्ञासा करना यही आत्माकी श्रेष्ठता है । कदाचित् यह जिज्ञासा पूर्ण न हो सके तो भी यह जिज्ञासा स्वयं उस श्रेष्ठताके अंशके समान है।
६ नये कर्मीका बंध नहीं करना और पुरानोंको भोग लेना, ऐसी जिसकी अचल जिज्ञासा है वह तदनुसार आचरण कर सकता है।
७ जिस कृत्यका परिणाम धर्म नहीं उस कृत्यको करनेकी इच्छा मूलसे ही रहने देना योग्य नहीं। ८ यदि मन शंकाशील हो गया हो तो ' द्रव्यानुयोग' का विचारना योग्य है। प्रमादी हो