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१० जीवतत्त्वके संबंध विचार ] विविध पत्र आदि संग्रह-१९वाँ वर्ष
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चलता है, वैसे वैसे काँचली भी साथ साथ चलती है, उसके साथ साथ ही मुड़ती है, अर्थात् काँचलीकी सब क्रियायें सर्पकी क्रियाके आधीन रहती हैं । ज्योंही सर्पने काँचलीका त्याग किया कि उसके बाद काँचली उनमेंकी एक भी क्रिया नहीं कर सकती । पहिले वह जो जो क्रिया करती थी वे सब क्रियायें केवल सर्पकी ही थीं, इसमें काँचली केवल संबंधरूप ही थी। इसी तरह जैसे जीव कर्मानुसार क्रिया करता है वैसा ही बर्ताव यह देह भी करती है। यह चलती है, बैठती है, उठती है, यह सब जीवकी प्रेरणासे ही होता है । उसका वियोग होते ही इनमेंसे कुछ भी नहीं रहता ।
अहर्निश अधिको प्रेम लगावे, जोगानल घटमांहि जगावे,
अल्पाहार आसन दृढ़ धरे, नयनथकी निद्रा परहरे।।
रात दिन ध्यान-विषयमें बहुत प्रेम लगानेसे योगरूपी अग्नि (कर्मको जला देनेवाली) घटमें जगावे । (यह मानों ध्यानका जीवन हुआ।) अब इसके अतिरिक्त उसके दूसरे साधन बताते हैं ।
थोड़ा आहार और आसनकी दृढ़ता करे । यहाँपर आसनसे पद्मासन, वीरासन, सिद्धासन अथवा चाहे जो आसन हो, जिससे मनोगति बारंबार इधर उधर न जाय, ऐसा आसन समझना चाहिये। इस तरह आसनका जय करके निद्राका परित्याग करे । यहाँ परित्यागसे एकदेश परित्यागका आशय है । योगमें जिस निद्रासे बाधा पहुँचती है उस निद्राका अर्थात् प्रमत्तभावके कारण दर्शनावरणीयकी वृद्धि इत्यादिसे उत्पन्न हुई निद्राका अथवा अकालिक निदाका त्याग करे।
जीवतत्त्वके संबंधमें विचार १. जीव तत्त्वको एक प्रकारसे, दो प्रकारसे, तीन प्रकारसे, चार प्रकारसे, पाँच प्रकारसे और छह प्रकारसे समझ सकते हैं।
अ-सब जीवोंके कमसे कम श्रुतज्ञानका अनंतवाँ भाग प्रकाशित रहता है इसलिये सब जीव चैतन्य लक्षणसे एक ही प्रकारके हैं।
जो गरमी से छायामें आवें, छायामेंसे गरमीम जॉय, जिनमें चलने फिरनेकी शक्ति हो, जो भयवाली वस्तु देखकर डरते हों, ऐसे जीवोंकी जातिको त्रस कहते हैं। तथा इनके सिवायके जो जीव एक ही जगहमें स्थित रहते हों, ऐसे जीवोंकी जातिको स्थावर कहते हैं। इस तरह सब जीव दो प्रकारोंमें आ जाते हैं।
यदि सब जीवोंको वेदकी दृष्टिसे देखते हैं तो स्त्री, पुरुष, और नपुंसकवेदमें सबका समावेश हो जाता है। कोई जीव स्त्रीवेदमें, कोई पुरुषवेदमें, और कोई नपुंसकवेदमें रहते हैं। इनके सिवाय कोई चौथा वेद नहीं है इसलिये वेददृष्टिसे सब जीव तीन प्रकारसे समझे जा सकते हैं।
बहुतसे जीव नरकगतिमें रहते हैं, बहुतसे तिर्यंचगतिमें रहते हैं, बहुतसे मनुष्यगतिमें रहते हैं, और बहुतसे देवगतिमें रहते हैं। इसके सिवाय कोई पाँचवीं संसारी गति नहीं है इसलिये जीव चार प्रकारसे समझे जा सकते हैं।