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श्रीमद् राजचन्द्र
[११ जीवाजीव-विभक्ति
जीवाजीव-विभक्ति
_ वि. सं. १९४३ जीव और अजीवके विचारको एकाग्र मनसे श्रवण करो। जिसके जाननेसे भिक्षु लोग सम्यक् प्रकारसे संयममें यत्न करें।
___ जहाँ जीव और अजीव पाये जाते हैं उसे लोक ००० कहा है, और अजीवके केवल आकाशवाले भागको अलोक कहा है।
जीव और अजीवका ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे हो सकता है।
रूपी और अरूपीके भेदसे अजीवके दो भेद होते हैं । अरूपीके दस भेद, तथा रूपीके चार भेद कहे गये हैं।
धर्मास्तिकाय, उसका देश, और उसके प्रदेश अधर्मास्तिकाय, उसका देश और उसके प्रदेश; आकाश, उसका देश, और उसके प्रदेश; तथा अर्द्धसमयकाल; इस तरह अरूपीके दस भेद होते हैं।
धर्म और अधर्म इन दोनोंको लोक प्रमाण कहा है।
आकाश लोकालोक प्रमाण, और अर्द्धसमय मनुष्यक्षत्र-प्रमाण है। धर्म, अधर्म और आकाश ये अनादि अनंत हैं।
निरंतरकी उत्पत्तिकी अपेक्षासे समय भी अनादि अनंत है । संतति अर्थात् एक कार्यकी अपेक्षासे वह सादि सांत है।
स्कंध, स्कंध देश, उसके प्रदेश, और परमाणु इस प्रकार रूपी अजीव चार प्रकारके हैं।
परमाणुओंके एकत्र होनेसे, और जिनसे वे पृथकू होते हैं उनको स्कंध कहते हैं; उसके विभागको देश, और उसके अंतिम अभिन्न अंशको प्रदेश कहते हैं।
स्कंध लोकके एकदेशमें व्याप्त है । इसके कालके विभागसे चार प्रकार कहे जाते हैं।
ये सब निरंतर उत्पत्तिकी अपेक्षासे अनादि अनंत हैं; और एक क्षेत्रकी स्थितिकी अपेक्षासे सादि सांत है।
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बम्बई, १९४३ पौष वदी १० बुधवार विवाहके संबंधमें उन्होंने जो मिति निश्चित की है, यदि इसके विषयमें उनका आग्रह है तो वह मिति भले ही निश्चित रही।
लक्ष्मीपर प्रीति न होनेपर भी वह किसी परोपकारके काममें बहुत उपयोगी हो सकती है, ऐसा मालूम होनेसे मौन धारण करके मैं यहाँ उसके संबंधमें उसकी सळ्यवस्था करनेमें लगा हुआ था। इस व्यवस्थाका अभीष्ट परिणाम आनेमें बहुत समय न था; परन्तु इनकी तरफका एक ममत्वभाव शीघ्रता कराता है जिससे सब कुछ पड़ा हुआ छोरकर वदी १३ या १४ (पौषकी ) के रोज यहाँसे रखाना होता है।