________________
. श्रीमद् राजचन्द्र
[७ वचनामृत ५८ स्थिर चित्तसे धर्म और शुक्लध्यानमें प्रवृत्ति करो । ५९ परिग्रहकी मूर्छा पापका मूल है ।
६० जिस कृत्यके करते समय व्यामोहयुक्त खेदमें रहते हो, और अन्तमें भी पछताते हो, तो ज्ञानी लोग उस कृत्यको पूर्वकर्मका ही दोष कहते हैं ।
६१ मुझे जड़ भरत और विदेही जनककी दशा प्राप्त होओ। ६२ जो सत्पुरुषद्वारा अंतःकरणपूर्वक आचरण किया गया है अथवा कहा गया है, वही धर्म है। ६३ जिसकी अंतरंग मोहकी ग्रंथी नष्ट हो गई हो वही परमात्मा है । ६४ व्रतको लेकर उसे उल्लासयुक्त परिणामसे भंग नहीं करना। ६५ एकनिष्ठासे ज्ञानीकी आज्ञाका आराधन करनेसे तत्त्वज्ञान प्राप्त होता है ।
६६ क्रिया ही कर्म है, उपयोग ही धर्म है, परिणाम ही बंध है, भ्रम ही मिथ्यात्व है, शोकको स्मरण नहीं करना; ये उत्तम वस्तुयें मुझे ज्ञानियोंने दी हैं।
६७ जगत् जैसा है उसे तत्त्वज्ञानकी दृष्टिसे वैसा ही देखो।
६८ श्रीगौतमको चार वेदका पाठ किया हुआ देखनेके लिये श्रीमान् महावीरस्वामीने सम्यक् नेत्र दिये थे।
६९ भगवतीमें कही हुई पुद्गल नामके परिव्राजककी कथा तत्त्वज्ञानियोंका कहा हुआ सुंदर रहस्य है।
७० वीरके कहे हुए शास्त्रोंमें सुनहरी वचन जहाँ तहाँ अलग अलग और गुप्त हैं।
७१ सम्यक्नेत्र पाकर तुम चाहे जिस किसी धर्मशास्त्रका मनन करो तो भी उससे ही आत्महित प्राप्त होगा।
. ७२ हे कुदरत ! यह तेरा प्रबल अन्याय है कि मेरी विचार की हुई नीतिसे तू मेरा काल व्यतीत नहीं कराती ! ( कुदरत अर्थात् पूर्वकर्म )।
७३ मनुष्य ही परमेश्वर हो जाता है, ऐसा ज्ञानीजन कहते हैं। ७४ उत्तराध्ययन नामके जैनसूत्रका तत्त्वदृष्टिसे पुनः पुनः अवलोकन करो। ७५ जीते हुए मरा जा सके तो फिरसे न मरना पड़े, ऐसे मरणकी इच्छा करना योग्य है। ७६ मुझे कृतघ्नताके समान अन्य कोई भी महादोष नहीं लगता । ७७ जगतमें यदि मान न होता तो यहीं मोक्ष थी। ७८ वस्तुको वस्तुरूपसे देखो। ७९ धर्मका मूल "वि० है। ८० विघा उसीका नाम है कि जिससे अविधा प्राप्त न हो । ८१ वीरके एक एक वाक्यको भी समझो । ८२ अहंकार, कृतघ्नता, उत्सूत्र-प्ररूपणा, अविवेक-धर्म ये दुर्गतिके लक्षण हैं।
१ भीमद्के साक्षात् संपर्कमें आये हुए एक सजन मित्रका कहना है कि यहाँ वि० से विचार, विवेक, विनय और विराम ये चार बातें ली गई हैं। अनुवादक ।