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७ वचनामृत] विविध पत्र आदि संग्रह-१९वाँ वर्ष
१२३ ३३ जहाँ · मैं ' मान रहा है वहाँ 'तू' नहीं है, और जहाँ 'तू' मान रहा है वहाँ 'तू' नहीं है।
३४ हे जीव ! अब भोगसे शांत हो, शांत ! जरा विचार तो सही कि इसमें कौनसा सुख है ! ३५ बहुत दुखियाजानेपर संसारमें नहीं रहना। ३६ सत्ज्ञान और सत्शीलको साथ साथ बढ़ाना । ३७ किसी एक वस्तुसे मैत्री नहीं करना, यदि करना ही हो तो समस्त जगतसे करना।
३८ महासौंदर्यसे पूर्ण देवांगनाके कीड़ा-विलास निरीक्षण करनेपर भी जिसके अंतःकरणमें कामसे अधिकाधिक वैराग्य प्रस्फुरित होता हो उसे धन्य है; उसे त्रिकाल नमस्कार है ।
३९ भोगके समयमें योगका स्मरण होना यह लघुकर्मीका लक्षण है।
४० यदि इतना हो जाय तो मैं मोक्षकी इच्छा न करूँ-समस्त सृष्टि सत्शीलकी सेवा करे, नियमित आयु, नीरोग शरीर, अचल प्रेम करनेवाली सुन्दर स्त्रियाँ, आज्ञानुवर्ती अनुचर, कुल-दीपक पुत्र, जीवनपर्यंत बाल्यावस्था, और आत्म-तत्त्वका चितवन ।
४१ किन्तु ऐसा तो कभी भी होनेवाला नहीं, इसलिये मैं तो मोक्षकी ही इच्छा करता हूँ। ४२ सृष्टि क्या सर्व अपेक्षासे अमर होगी ! ४३ शुक्ल निर्जनावस्थाको मैं बहुत मानता हूँ। ४४ सृष्टि-लीलामें शांतभावसे तपश्चर्या करना यह भी उत्तम है। १५ एकांतिक कथन करनेवाला ज्ञानी नहीं कहा जा सकता। ४६ शुक्ल अंतःकरणके बिना मेरे कथनका कौन इन्साफ करेगा ! ४७ ज्ञातपुत्र भगवान्के कथनकी ही बलिहारी है ।
४८ देव देवीकी प्रसन्नताको हम क्या करेंगे ! जगत्की प्रसन्नताको हम क्या करेंगे ? प्रसन्नताकी इच्छा करो तो सत्पुरुषकी करो।
१९ मैं सच्चिदानन्द परमात्मा हूँ।
५० यदि तुम्हें अपनी आत्माके हितके लिये प्रवृत्ति करनेकी अभिलाषा रखनेपर भी इससे निराशा हुई हो तो उसे भी अपना आत्म-हित ही समझो ।
५१ यदि अपने शुभ विचारमें सफल न हो, तो स्थिर चित्तसे सफल हुए हो ऐसा समझो। । ५२ ज्ञानीजन अंतरंग खेद और हर्षसे रहित होते हैं । ५३ जहाँतक उस तत्त्वकी प्राप्ति न हो वहाँतक मोक्षका सार नहीं मिला ।
५४ नियम पालनेकी दृढ़ता करनेपर भी वह नहीं पलता, यह पूर्वकर्मका ही दोष है, ऐसा ज्ञानियोंका कहना है।
५५ संसाररूपी कुटुंबके घर अपनी आत्मा पाहुनेके समान है। ५६ भाग्यशाली वही है जो दुर्भाग्यशालीपर दया करता है। ५७ महर्षि शुभ द्रव्यको शुभ भावका निमित्त कहते हैं ।