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श्रीमद् राजचन्द्र
[प्रथम दर्शन निव्वाणसेहा जह सव्वधम्मा
सब धर्मोमें मुक्तिको श्रेष्ठ कहा है. सारांश यह है कि मुक्ति उसे कहते हैं कि संसार-शोकसे मुक्त होना, और परिणाममें ज्ञान दर्शन आदि अनुपम वस्तुओंको प्राप्त करना । जिसमें परम सुख और परमानंदका अखंड निवास है, जन्म-मरणकी विडम्बनाका अभाव है, शोक और दुःखका क्षय है; ऐसे इस विज्ञानयुक्त विषयका विवेचन किसी अन्य प्रसंगपर करेंगे।
यह भी निर्विवाद मानना चाहिये कि उस अनंत शोक और अनंत दुःखकी निवृत्ति इन्हीं सांसारिक विषयोंसे नहीं होगी । जैसे रुधिरसे रुधिरका दाग नहीं जाता, परन्तु वह दाग जलसे दूर हो जाता है इसी तरह श्रृंगारसे अथवा शृंगारमिश्रित धर्मसे संसारकी निवृत्ति नहीं होती। इसके लिये तो वैराग्य-जलकी आवश्यकता निःसंशय सिद्ध होती है, और इसीलिये वीतरागके वचनोंमें अनुरक्त होना उचित है । कमसे कम इससे विषयरूपी विषका जन्म नहीं होता। अंतमें यही मुक्तिका कारण हो जाता है । हे मनुष्य ! इन वीतराग सर्वज्ञके वचनोंको विवेक-बुद्धिसे श्रवण, मनन और निदिध्यासन करके आत्माको उज्ज्वल कर !
प्रथम दर्शन वैराग्यकी और आत्महितैषी विषयोंकी सुदृढ़ता होनेके लिये बारह भावनाओंका तत्वज्ञानियोंने उपदेश किया है:
१ अनित्यभावनाः-शरीर, वैभव, लक्ष्मी, कुटुम्ब परिवार आदि सब विनाशीक हैं । जीवका केवल मूलधर्म ही अविनाशी है, ऐसा चितवन करना पहली अनित्यभावना है।
२ अशरणभावनाः-संसारमें मरणके समय जीवको शरण रखनेवाला कोई नहीं, केवल एक शुभ धर्मकी ही शरण सत्य है, ऐसा चिंतवन करना दूसरी अशरणभावना है।
३ संसारभावना:-इस आत्माने संसार-समुद्रमें पर्यटन करते हुए सब योनियोंमें जन्म लिया है, इस संसाररूपी जंजीरसे मैं कब छुटूंगा ! यह संसार मेरा नहीं, मैं मोक्षमयी हूँ, इस प्रकार चितवन करना तीसरी संसारभावना है।
४ एकत्वभावना:-यह मेरी आत्मा अकेली है, यह अकेली ही आती है, और अकेली जायगी, और अपने किए हुए कौको अकेली ही भोगेगी, इस प्रकार अंतःकरणसे चिंचतवन करना यह चौथी एकत्वभावना है।
५ अन्यत्वभावनाः-इस संसारमें कोई किसीका नहीं, ऐसा विचार करना पाँचवीं अन्यत्वभावना है।
६ अशुचिभावना:-यह शरीर अपवित्र है,मलमूत्रकी खान है, रोग और जराका निवासस्थान है। इस शरीरसे मैं न्यारा हूँ, यह चितवन करना छडी अशुचिभावना है।
७ आश्रवभावनाः-राग, द्वेष, अज्ञान, मिथ्यात्व इत्यादि सब आश्रवके कारण हैं, इस प्रकार चितवन करना सातवीं आश्रवभावना है।