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श्रीमद राजचन्द्र
[निवृत्तिबोध
कुछ जुदा ही है । यदि हम इस प्रकार अविवेक दिखावें तो फिर बंदरको भी मनुष्य गिननेमें क्या दोष है ! इस विचारेको तो एक पूंछ और भी अधिक प्राप्त हुई है । परन्तु नहीं, मनुष्यत्वका मर्म यह है कि जिसके मनमें विवेक बुद्धि उदय हुई है वही मनुष्य है, बाकी इसके सिवाय तो सभी दो पैरवाले पशु ही हैं । मेधावी पुरुष निरंतर इस मानवपनेका मर्म इसी तरह प्रकाशित करते हैं । विवेक-बुद्धिके उदयसे मुक्तिके राजमार्गमें प्रवेश किया जाता है, और इस मार्गमें प्रवेश करना ही मानवदेहकी उत्तमता है। फिर भी यह बात सदैव ध्यानमें रखनी उचित है कि वह देह तो सर्वथा अशुचिमय और अशुचिमय ही है । इसके स्वभावमें इसके सिवाय और कुछ नहीं।।
___ भावनाबोध ग्रंथमें अशुचिभावनाके उपदेशके लिये प्रथम दर्शनके पाँच चित्रमें सनत्कुमारका दृष्टान्त और प्रमाणशिक्षा पूर्ण हुए।
अंतर्वर्शन षष्ठ चित्र निवृत्ति-बोध
हरिगीत छंद अनंत सौख्य नाम दुःख त्यां रही न मित्रता ! अनंत दुःख नाम सौख्य प्रेम त्यां, विचित्रता !! उघाड न्याय नेत्रने निहाळरे ! निहाळ तुं !
निवृत्ति शीघ्रमेव धारि ते प्रवृत्ति बाळ तुं ॥ १ ॥ विशेषार्थः—जिसमें एकांत और अनंत सुखकी तरंगें उछल रहीं हैं ऐसे शील-ज्ञानको केवल नाममात्रके दुःखसे तंग आकर उन्हें मित्ररूप नहीं मानता, और उनको एकदम भुला डालता है; और केवल अनंत दुःखमय ऐसे संसारके नाममात्र सुखमें तेरा परिपूर्ण प्रेम है, यह कैसी विचित्रता है ! अहो चेतन ! अब तू अपने न्यायरूपी नेत्रोंको खोलकर देख ! रे देख !! देखकर शीघ्र ही निवृत्ति अर्थात् महावैराग्यको धारण कर और मिथ्या काम-भोगकी प्रवृत्तिको जला दे!
ऐसी पवित्र महानिवृत्तिको दृढ़ करनेके लिये उच्च वैराग्यवान् युवराज मृगापुत्रका मनन करने योग्य चरित्र यहाँ उद्धृत किया है । तू कैसे दुःखको सुख मान बैठा है ! और कैसे सुखको दुःख मान बैठा है ? इसे युवराजके मुख-वचन ही याथातथ्य सिद्ध करेंगे ।
मृगापुत्र नाना प्रकारके मनोहर वृक्षोंसे भरे हुए उद्यानोंसे सुशोभित सुप्रीव नामका एक नगर था । उस नगरमें बलभद नामका एक राजा राज्य करता था। उसकी मिष्टभाषिणी पटरानीका नाम मृगा था। इस दंपतिके बलश्री नामक एक कुमार उत्पन्न हुआ; किन्तु सब लोग इसे मृगापुत्र कहकर ही पुकारा करते थे। वह अपने माता पिताको अत्यन्त प्रिय था। इस युवराजने गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी संयतिके गुणोंको प्राप्त किया था। इस कारण यह दमीश्वर अर्थात् यतियोंमें अग्रेसर गिने जाने योग्य था । वह मृगापुत्र शिखरबंद आनन्दकारी प्रासादमें अपनी प्राणप्रियाके साथ दोगंदुक देवके समान विलास किया करता था । वह निरंतर प्रमोदसहित मनसे रहता था। उसके प्रासादका फर्श चंद्रकांत आदि मणि