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अशुचिभावना]
भावनावोष परित्याग करके उसके ममत्वको मिथ्या सिद्ध कर बताया। महावैराग्यकी अचलता, निर्ममत्व, और आत्मशक्तिकी प्रफुल्लता ये सब इन महायोगीश्वरके चरित्रमें गर्मित हैं।
एक ही पिताके सौ पुत्रों से निन्यानवें पुत्र पहलेसे ही आत्मकल्याणका साधन करते थे । सौवें इन भरतेश्वरने आत्मसिद्धि की । पिताने भी इसी कल्याणका साधन किया । उत्तरोत्तर होनेवाले भरतेश्वरके राज्यासनका भोग करनेवाले भी इसी आदर्श-भुवनमें इसी सिद्धिको पाये हुए कहे जाते हैं। यह सकल सिद्धिसाधक मंडल अन्यत्वको ही सिद्ध करके एकत्वमें प्रवेश कराता है। उन परमात्माओंको अभिवन्दन हो!
शार्दूलविक्रीडित देखी आंगलि आप एक अडवी, वैराग्य वेगे गया, छांडी राजसमाजने भरतजी, कैवल्यज्ञानी थया; चोधुं चित्र पवित्र एज चरिते, पाम्युं अहीं पूर्णता;
ज्ञानीनां मन तेज रंजन करो, वैराग्य भावे यथा ॥१॥ विशेषार्थः-अपनी एक उंगली शोभारहित देखकर जिसने वैराग्यके प्रवाहमें प्रवेश किया, जिसने राज-समाजको छोड़कर केवलज्ञानको प्राप्त किया, ऐसे उस भरतेश्वरके चरित्रको बतानेवाला यह चौथा चित्र पूर्ण हुआ। वह यथायोग्यरूपसे वैराग्यभाव प्रदर्शन करके ज्ञानी पुरुषके मनको रंजन करनेवाला होओ!
पंचम चित्र अशुचिभावना
गीतीवृत्त
खाण मूत्र ने मळनी, रोग जरानुं निवासर्नु धाम;
काया एवी गणि ने, मान त्यजीने कर सार्थक आम ॥१॥ विशेषार्थ:-हे चैतन्य ! इस कायाको मल और मूत्रकी खान, रोग और वृद्धताके रहनेका धाम मानकर उसका मिथ्याभिमान त्याग करके सनत्कुमारकी तरह उसे सफल कर ! इन भगवान् सनत्कुमारका चरित्र यहाँ अशुचिभावनाकी सत्यता बतानेके लिये आरंभ किया जाता है।
सनत्कुमार (देखो पृष्ठ ६९-७१, पाठ ७०-७१)
ऐसा होनेपर भी आगे चलकर मनुष्य देहको सब देहोंमें उत्तम कहना पड़ेगा । कहनेका तात्पर्य यह है कि इससे सिद्धगतिकी सिद्धि होती है । तत्संबंधी सब शंकाओंको दूर करनेके लिये यहाँ नाममात्र व्याख्यान किया गया है।
जब आत्माके शुभकर्मका उदय आया तब यह मनुष्य देह मिली । मनुष्य अर्थात् दो हाथ, दो पैर, दो आँख, दो कान, एक मुँह, दो ओष्ठ और एक नाकवाले देहका स्वामी नहीं, परन्तु इसका मर्म