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मृगापुत्र]
भावनाबोध
और विविध रत्नोंसे जड़ा हुआ था । एक दिन वह कुमार अपने झराखेमें बैठा हुआ था। वहाँसे नगरका परिपूर्णरूपसे निरीक्षण होता था । इतनेमें मुगापुत्रकी दृष्टि चार राजमार्ग मिलनेवाले चौरायेके उस संगम-स्थानपर पड़ी जहाँ तीन राजमार्ग मिलते थे । उसने वहाँ महातप, महानियम, महासंयम, महाशील और महागुणोंके धामरूप एक शांत तपस्वी साधुको देखा । ज्यों ज्यों समय बीतता जाता था, त्यों त्यों उस मुनिको वह मृगापुत्र निरख निरखकर देख रहा था।
ऐसा निरीक्षण करनेसे वह इस तरह बोल उठा-जान पड़ता है कि मैंने ऐसा रूप कहीं देखा है, और ऐसा बोलते बोलते उस कुमारको शुभ परिणामोंकी प्राप्ति हुई, उसका मोहका पड़दा हट गया, और उसके भावोंकी उपशमता होनेसे उसे तत्क्षण जातिस्मरण ज्ञान उदित हुआ । पूर्वजातिका स्मरण उत्पन्न होनेसे महाऋद्धिके भोक्ता उस मृगापुत्रको पूर्वके चारित्रका भी स्मरण हो आया। वह शीघ्र ही उस विषयसे विरक्त हुआ, और संयमकी ओर आकृष्ट हुआ। उसी समय वह माता पिताके समीप आकर बोला कि मैंने पूर्वभवमें पाँच महाव्रतोंके विषयमें सुना था; नरकके अनंत दुःखोंको सुना था, और तिथंचगतिके भी अनंत दुःखोंको सुना था । इन अनंत दुःखोंसे दुःखित होकर मैं उनसे निवृत्त होनेका अभिलाषी हुआ हूँ। हे गुरुजनो! संसाररूपी समुद्रसे पार होनेके लिये मुझे उन पाँच महाव्रतोंको धारण करनेकी आज्ञा दो।
कुमारके निवृत्तिपूर्ण वचनोंको सुनकर उसके माता पिताने उसे भोगोंको भोगनेका आमंत्रण दिया। आमंत्रणके वचनोंसे खेदखिन्न होकर मृगापुत्र ऐसे कहने लगा, कि हे माता पिता ! जिन भोगोंको भोगनेका आप मुझे आमंत्रण कर रहे हैं उन भोगोंको मैंने खूब भोग लिया है। वे भोग विषफल-किंपाक वृक्षके फलके समान हैं; वे भागनेके बाद कड़वे विपाकको देते हैं;और सदैव दुःखोत्पत्तिके कारण हैं। यह शरीर अनित्य और सर्वथा अशुचिमय है; अशुचिसे उत्पन्न हुआ है; यह जीवका अशाश्वत वास है, और अनंत दुःखका हेतु है । यह शरीर रोग, जरा और क्लेश आदिका भाजन है । इस शरीरमें मैं रति कैसे करूँ ! इस बातका कोई नियम नहीं कि इस शरीरको बालकपनेमें छोड़ देना पड़ेगा अथवा वृद्धपनेमें ! यह शरीर पानीके फेनके बुलबुलेके समान है। ऐसे शरीरमें स्नेह करना कैसे योग्य हो सकता है ! मनुष्यत्वमें इस शरीरको पाकर यह शरीर कोद, ज्वर वगैरे व्याधिसे और जरा मरणसे प्रस्त रहता है, उसमें मैं क्यों प्रेम करूँ !
जन्मका दुःख, जराका दुःख, रोगका दुःख, मरणका दुःख-इस तरह इस संसारमें केवल दुःख ही दुःख है । भूमि-क्षेत्र, घर, कंचन, कुटुंब, पुत्र, प्रमदा, बांधव इन सबको छोड़कर केवल क्लेश पाकर इस शरीरको छोड़कर अवश्य ही जाना पड़ेगा। जिस प्रकार किंपाक वृक्षके फलका परिणाम सुखदायक नहीं होता वैसे ही भोगका परिणाम भी सुखदायक नहीं होता । जैसे कोई पुरुष महाप्रवास शुरू करे किन्तु साथमें अन्न-जल न ले, तो आगे जाकर जैसे वह क्षुधा-तृषासे दुःखी होता है, वैसे ही धर्मके आचरण न करनेसे परभवमें जाता हुआ पुरुष दुःखी होता है; और जन्म, जरा आदिसे पीड़ित होता है। जिस प्रकार महाप्रवासमें जानेवाला पुरुष अन्न-जल आदि साथमें लेनेसे क्षुधा-तृषासे रहित होकर मुखको प्राप्त करता है वैसे ही धर्मका आचरण करनेवाला पुरुष परभवमें जाता हुआ सुखको पाता है; अल्प कर्मरहित होता हैऔर असातावेदनीयसे रहित होता है। हे गुरुजनो ! जैसे जिस समय किसी गृहस्थका घर जलने लगता है, उस समय उस घरका मालिक केवल अमूल्य वन आदिको ही लेकर बाकीके जीर्ण वन आदिको छोड़ देता है, वैसे ही लोकको जलता देखकर जीर्ण वसरूप जरा मरणको छोड़कर उस दाहसे (आप आज्ञा दें तो मैं ) अमूल्य आत्माको उबार हूँ।
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