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उपोबात ]
भावनाबोध
मोह त्यागकर और ज्ञानदर्शन-योगमें परायण होकर इन्होंने जो अद्भुतता दिखलायी है, वह अनुपम है। इसी रहस्यका प्रकाश करते हुए पवित्र उत्तराध्ययनसूत्रके आठवें अध्ययनकी पहली गाथामें तत्त्वाभिलाषी कपिल केवलीके मुखकमलसे महावीरने कहलवाया है किः
अधुवे असासयंमि संसारंमि दुक्खपउराए।
किं नाम हुन्ज कम्मं जेणाहं दुग्गई न गच्छिज्जा ॥१॥ " अध्रुव और अशाश्वत संसारमें अनेक प्रकारके दुःख हैं । मैं ऐसी कौनसी करणी करूँ कि जिस करणीसे दुर्गतिमें न जाऊँ ?" इस गाथामें इस भावसे प्रश्न होनेपर कपिल मुनि फिर आगे उपदेश देते हैं।
"अधुवे असासयंमि"-प्रवृत्तिमुक्त योगीश्वरके ये महान् तत्त्वज्ञानके प्रसादीभूत वचन सतत ही वैराग्यमें ले जानेवाले हैं। अति बुद्धिशालीको संसार भी उत्तम रूपसे मानता है फिर भी वे बुद्धिशाली संसारका त्याग कर देते है। यह तत्त्वज्ञानका प्रशंसनीय चमत्कार है । ये अत्यन्त मेधावी अंतमें पुरुषार्थकी स्फुरणाकर महायोगका साधनकर आत्माके तिमिर-पटको दूर करते हैं । संसारको शोकाब्धि कहने में तत्त्वज्ञानियोंकी भ्रमणा नहीं है, परन्तु ये सभी तत्त्वज्ञानी कहीं तत्त्वज्ञान-चंद्रकी सोलह कलाओंसे पूर्ण नहीं हुआ करते; इसी कारणसे सर्वज्ञ महावीरके वचनोंसे तत्त्वज्ञानके लिये जो प्रमाण मिलता है वह महान् अद्भुत, सर्वमान्य और सर्वथा मंगलमय है। महावीरके समान ऋषभदेव आदि जो जो और सर्वज्ञ तीर्थकर हुए हैं उन्होंने भी निस्पृहतासे उपदेश देकर जगदहितैषीकी पदवी प्राप्त की है।
संसारमें जो केवल और अनंत भरपूर ताप हैं, वे ताप तीन प्रकारके हैं-आधि, व्याधि और उपाधि । इनसे मुक्त होनेका उपदेश प्रत्येक तत्त्वज्ञानी करते आये हैं । संसार-त्याग, शम, दम, दया, शांति, क्षमा, धृति, अप्रभुत्व, गुरुजनका विनय, विवेक, निस्पृहता, ब्रह्मचर्य, सम्यक्त्व और ज्ञान इनका सेवन करना; क्रोध, लोभ, मान, माया, अनुराग, अप्रीति, विषय, हिंसा, शोक, अज्ञान, मिथ्यात्व इन सबका त्याग करना; यह सब दर्शनोंका सामान्य रीतिसे सार है । नीचेके दो चरणोंमें इस सारका समावेश हो जाता है:
- प्रभु भजो नीति सजो, परठो परोपकार
अरे ! यह उपदेश स्तुतिके योग्य है । यह उपदेश देनेमें किसीने किसी प्रकारकी और किसीने किसी प्रकारकी विचक्षणता दिखाई है । ये सब स्थूल दृष्टिसे तो समतुल्य दिखाई देते हैं, परन्तु सूक्ष्म दृष्टिसे विचार करनेपर उपदेशकके रूपमें सिद्धार्थ राजाके पुत्र श्रमण भगवान् पहिले नम्बर आते हैं। निवृत्तिके लिये जिन जिन विषयोंको पहले कहा है उन उन विषयोंका वास्तविक स्वरूप समझकर संपूर्ण मंगलमय उपदेश करनेमें ये राजपुत्र सबसे आगे बढ़ गये हैं। इसके लिये वे अनंत धन्यवादके पात्र हैं !
इन सब विषयोंका अनुकरण करनेका क्या प्रयोजन और क्या परिणाम है ! अब इसका निर्णय करें । सब उपदेशक यह कहते आये हैं कि इसका परिणाम मुक्ति प्राप्त करना है और इसका प्रयोजन दुःखकी निवृत्ति है। इसी कारण सब दर्शनोंमें सामान्यरूपसे मुक्तिको अनुपम श्रेष्ठ कहा है। सूत्रकृतांग नामक द्वितीय अंगके प्रथम श्रुतस्कंधके छठे अध्ययनकी चौबीसवीं गाथाके तीसरे चरणमें कहा गया है कि: