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भीमद् राजचन्द्र
[नामराजा
विप्रः-परन्तु हे राजन् । अपनी नगरीका सघन किला बनवाकर, राजद्वार, अट्टालिकायें, फाटक, और मोहल्ले बनवाकर, खाई और शतघ्नी यंत्र बनवाकर बादमें जाना ।
नमिराजः-(हेतु कारणसे प्रेरित) हे विप्र ! मैं श्रद्धारूपी नगरी करके, सम्वर रूपी मोहल्ले करके क्षमारूपी शुभ किला बनाऊँगा; शुभ मनोयोग रूपी अट्टालिका बनाऊँगा; वचनयोगरूपी खाई खुदाऊँगा; काया योगरूपी शतघ्नी करूँगा, पराक्रमरूपी धनुष चढाऊँगा; ईर्यासमितिरूपी डोरी लगाऊँगा; धीरजरूपी कमान लगाऊँगा; धैर्यको मूठ बनाऊँगा; सत्यरूपी चापसे धनुषको बाँधूगा; तपरूपी बाण लगाऊँगा; और कर्मरूपी वैरीकी सेनाका भेदन करूँगा; लौकिक संग्रामकी मुझे रुचि नहीं है, मैं केवल ऐसे भाव-संग्रामको चाहता है।
विप्रः-(हेतु कारणसे प्रेरित ) हे राजन् ! शिखरबंद ऊँचे महल बनवाकर, मणि कांचनके झरोखे आदि लगवाकर, तालाबमें क्रीड़ा करनेके मनोहर स्थान बनवाकर फिर जाना ।
नमिराजः-( हेतु कारणसे प्रेरित ) तूने जिस जिस प्रकारके महल गिनाये वे महल मुझे अस्थिर और अशाश्वत जान पड़ते हैं । वे मार्गमें बनी हुई सरायके समान मालूम होते हैं, अतएव जहाँ स्वधाम है, जहाँ शाश्वतता है और जहाँ स्थिरता है मैं वहीं निवास करना चाहता हूँ।
विप्रः- ( हेतु कारणसे प्रेरित ) हे क्षत्रियशिरोमाणि! अनेक प्रकारके चोरोंके उपद्रवोंको दूरकर इसके द्वारा नगरीका कल्याण करके जाना।
नमिराजः-हे विप्र ! अज्ञानी मनुष्य अनेक बार मिथ्या दंड देते हैं। चोरीके नहीं करनेवाले शरीर आदि पुद्गल लोकमें बाँधे जाते हैं; तथा चोरीके करनेवाले इन्द्रिय-विकारको कोई नहीं बाँध सकता फिर ऐसा करनेकी क्या आवश्यकता है !
विप्रः-हे क्षत्रिय ! जो राजा तेरी आज्ञाका पालन नहीं करते और जो नराधिप स्वतंत्रतासे आचरण करते हैं त, उन्हें अपने वशमें करके पीछे जाना ।
नमिराजः-( हेतु कारणसे प्रेरित ) दसलाख सुभटोंको संग्राममें जीतना दुर्लभ गिना जाता है, फिर भी ऐसी विजय करनेवाले पुरुष अनेक मिल सकते हैं, परन्तु अपनी आत्माको जीतनेवाले एकका मिलना भी अनंत दुर्लभ हैं । दसलाख सुभटोंसे विजय पानेवालोंकी अपेक्षा अपनी स्वात्माको जीतनेवाला पुरुष परमोत्कृष्ट है । आत्माके साथ युद्ध करना उचित है । बाह्य युद्धका क्या प्रयोजन है ! ज्ञानरूपी आत्मासे क्रोध आदि युक्त आत्माको जीतनेवाला स्तुतिका पात्र है । पाँच इन्द्रियोंको, क्रोधको, मानको, मायाको और लोभको जीतना दुष्कर है । जिसने मनोयोग आदिको जीत लिया उसने सब कुछ जीत लिया।
विप्रः-( हेतु कारणसे प्रेरित ) हे क्षत्रिय ! समर्थ यज्ञोंको करके, श्रमण, तपस्वी, ब्राह्मण आदिको भोजन देकर, सुवर्ण आदिका दान देकर, मनोज भोगोंको भोगकर, तू फिर पीछेसे जाना।
नमिराजः- ( हेतु कारणसे प्रेरित ) हर महीने यदि दस लाख गायोंका दान दे फिर भी जो दस लाख गायोंके दानकी अपेक्षा संयम ग्रहण करके संयमकी आराधना करता है वह उसकी अपेक्षा विशेष मंगलको प्राप्त करता है।