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श्रीमद् राजचन्द्र
[उपोदात महायोगी भर्तृहरिका यह कथन सृष्टिमान्य अर्थात् समस्त उज्ज्वल आत्माओंको सदैव मान्य रखने योग्य है। इसमें समत तत्त्वज्ञानका दोहन करनेके लिये इन्होंने सकल तत्त्ववेत्ताओंके सिद्धांतका रहस्य और संसार-शोकके स्वानुभवका जैसेका तैसा चित्र खींच दिया है। इन्होंने जिन जिन वस्तुओंपर भयकी छाया दिखाई है वे सब वस्तुयें संसारमें मुख्यरूपसे सुखरूप मानी गई हैं। संसारकी सर्वोत्तम विभूति जो भोग हैं, वे तो रोगोंके धाम ठहरे; मनुष्य ऊँचे कुलोंसे सुख माननेवाला है, वहाँ च्युत होनेका भय दिखाया; संसार-चक्रमें व्यवहारका ठाठ चलानेमें जो दंडस्वरूप लक्ष्मी, वह राजा इत्यादिके भयसे भरपूर है; किसी भा कृत्यद्वारा यशकीर्तिसे मान प्राप्त करना अथवा मानना ऐसी संसारके पामर जीवोंकी अभिलाषा रहा करती है, इसमें महादीनता और कंगालपनेका भय है; बल पराक्रमसे भी इसी प्रकारकी उत्कृष्टता प्राप्त करनेकी चाह रहा करती है, उसमें शत्रुका भय रहा हुआ है। रूप-कांति भोगीको मोहिनीरूप है, उसमें रूप-कांति धारण करनेवाली स्त्रियाँ निरंतर भयरूप हैं; अनेक प्रकारकी गुत्थियोंसे भरपूर शास्त्र-जालमें विवादका भय रहता है। किसी भी सांसारिक सुखके गुणको प्राप्त करनेसे जो आनंद माना जाता है, वह खल मनुष्योंकी निंदाके कारण भयान्वित है; जो अनंत प्यारी लगती है ऐसी यह काया भी कभी न कभी कालरूपी सिंहके मुखमें पड़नेके भयसे पूर्ण है । इस प्रकार संसारके मनोहर किन्तु चपल सुख-साधन भयसे भरे हुए हैं। विवेकसे विचार करनेपर जहाँ भय है वहाँ केवल शोक ही है । जहाँ शोक है वहाँ सुखका अभाव है, और जहाँ सुखका अभाव है वहाँ तिरस्कार करना उचित ही है।
- अकेले योगीन्द्र भर्तृहरि ही ऐसा कह गये हैं, यह बात नहीं । कालके अनुसार सृष्टिके निर्माणके समयसे लेकर भर्तृहरिसे उत्तम, भर्तृहरिके समान और भर्तृहरिसे कनिष्ठ कोटिके असंख्य तत्त्वज्ञानी हो गये हैं । ऐसा कोई काल अथवा आर्यदेश नहीं जिसमें तत्त्वज्ञानियोंकी बिलकुल भी उत्पत्ति न हुई हो । इन तत्त्ववेत्ताओंने संसार-सुखकी हरेक सामग्रीको शोकरूप बताई हैं । यह उनके अगाध विवेकका परिणाम है। व्यास, वाल्मीकि, शंकर, गौतम, पातंजलि, कपिल, और युवराज शुद्धोदनने अपने प्रवचनोंमें मार्मिक रीतिसे और सामान्य रातिसे जो उपदेश किया है, उसका रहस्य नीचेके शब्दोंमें कुछ कुछ आ जाता है:
" अहो प्राणियों ! संसाररूपी समुद्र अनंत और अपार है। इसका पार पानेके लिये पुरुषार्थका उपयोग करो! उपयोग करो!"
इस प्रकारका उपदेश देनेमें इनका हेतु समस्त प्राणियोंको शोकसे मुक्त करनेका था । इन सब ज्ञानियोंकी अपेक्षा परम मान्य रखने योग्य सर्वज्ञ महावीरका उपदेश सर्वत्र यही है कि संसार एकांत और अनंत शोकरूप तथा दुःखप्रद है। अहो! भव्य लोगो ! इसमें मधुर मोहिनीको प्राप्त न होकर इससे निवृत्त होओ ! निवृत्त होओ!! . .
• महावीरका. एक समयके लिये भी संसारका उपदेश नहीं है । इन्होंने अपने समस्त उपदेशोंमें यही बताया है और यही अपने आचरणद्वारा सिद्ध भी कर दिखाया है । कंचन वर्णकी काया, यशोमती जैसी रानी, अतुल साम्राज्यलक्ष्मी और महाप्रतापी स्वजन परिवारका समूह होनेपर भी उनका