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श्रीमद् राजचन्द्र
[जिनेश्वरकी वाणी उ.-हमें जबतक आत्माकी अनंत शक्तिकी लेशभर भी दिव्य प्रसादी नहीं मिलती तभीतक ऐसा लगा करता है; परन्तु तत्त्वज्ञान होनेपर ऐसा नहीं होगा। सन्मतितर्क आदि ग्रंथोंका आप अनुभव करेंगे तो यह शंका दूर हो जावेगी।
प्र.-परन्तु समर्थ विद्वान् अपनी मृषा बातको भी दृष्टांत आदिसे सिद्धांतपूर्ण सिद्ध कर देते हैं; इसलिये यह खंडित नहीं हो सकती परन्तु इसे सत्य कैसे कह सकते हैं ?
उ.-परन्तु इन्हें मृषा कहनेका कुछ भी प्रयोजन न था, और थोड़ी देरके लिये ऐसा मान भी लें कि हमें ऐसी शंका हुई कि यह कथन मृषा होगा, तो फिर जगत्कर्ताने ऐसे पुरुषको जन्म भी क्यों दिया! ऐसे नाम डुबानेवाले पुत्रको जन्म देनेकी उसे क्या जरूरत थी ! तथा ये पुरुष तो सर्वज्ञ थे; जगत्का कर्ता सिद्ध होता तो ऐसे कहनेसे उनकी कुछ हानि न थी।
१०७ जिनेश्वरकी वाणी ___जो अनंत अनंत भाव-भेदोंसे भरी हुई है, अनंत अनंत नय निक्षेपोंसे जिसकी व्याख्या की गई है, जो सम्पूर्ण जगत्की हित करनेवाली है, जो मोहको हटानेवाली है, संसार-समुद्रसे पार करनेवाली है, जो मोक्षमें पहुँचानेवाली है, जिसे उपमा देनेकी इच्छा रखना भी व्यर्थ है, जिसे उपमा देना मानों अपनी बुद्धिका ही माप दे देना है ऐसा मैं मानता हूँ, अहो रायचन्द्र ! इस बातको बाल-मनुष्य ध्यानमें नहीं लाते कि ऐसी जिनेश्वरकी वाणीको विरले ही जानते हैं ॥१॥
१०८ पूर्णमालिका मंगल जो तप और ध्यानसे रविरूप होता है और उनकी सिद्धि करके जो सोमरूपसे शोभित होता है। बादमें वह महामंगलकी पदवी प्राप्त करता है, जहाँ वह बुधको प्रणाम करनेके लिये आता है। तत्पश्चात् वह सिद्धिदायक निम्रन्थ गुरु अथवा पूर्ण व्याख्याता स्वयं शुक्रका स्थान ग्रहण करता है । उस दशामें तीनों योग मंद पड़ जाते हैं, और आत्मा स्वरूप-सिद्धिमें विचरती हुई विश्राम लेती है।
१०७ जिनेश्वरनी वाणी
मनहर छंद अनंत अनंत भाव भेदथी भरेली भली, अनंत अनंत नय निक्षेपे व्याख्यानी छे; सकळ जगत हितकारिणी हारिणी मोह, तारिणी भवाब्धि मोक्षचारिणी प्रमाणी छे; उपमा आप्यानी जेने, तमा राखवी ते व्यर्थ, आपवाथी निज मति मपाई में मानी छे; अहो ! राज्यचन्द्र बाळ ख्याल नथी पामता ए, जिनेश्वरतणी वाणी जाणी तेणे जाणी छे
१०८ पूर्णमालिका मंगल
उपजाति तप्पोपध्याने रविरूप याय, ए साधिने सोम रही सुहाय; महान ते मंगळ पक्ति पामे, आवे पछी ते बुधनां प्रणामे ॥ १॥ निर्घन्य शाता गुरु सिद्धि दाता, कांतो स्वयं शुक्र प्रपूर्ण ख्याता; त्रियोग त्यां केवळ मंद पामे, स्वरूप सिद्ध विचरी विरामे ॥ २॥ .