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विविध प्रम]
मोक्षमाला १०५ विविध प्रश्न
प्र.-ऐसा जैनदर्शन यदि सर्वोत्तम है तो सब जीव इसके उपदेशको क्यों नहीं मानते ! उ.-कर्मकी बाहुल्यतासे, मिथ्यात्वके जमे हुए मलसे और सत्समागमके अभावसे । प्र.-जैनदर्शनके मुनियोंका मुख्य आचार क्या है ?
उ.--पाँच महाव्रत, दश प्रकारका यतिधर्म, सत्रह प्रकारका संयम, दस प्रकारका वैयावृत्य, नव प्रकारका ब्रह्मचर्य, बारह प्रकारका तप, क्रोध आदि चार प्रकारकी कषायोंका निग्रह; इनके सिवाय ज्ञान, दर्शन तथा चारित्रका आराधन इत्यादि अनेक भेद हैं।
प्र.-जैन मुनियोंके समान ही सन्यासियोंके पाँच याम हैं; बौद्धधर्मके पाँच महाशील हैं, इसलिये इस आचारमें तो जैनमुनि, सन्यांसी तथा बौद्धमुनि एकसे हैं न !
उ.- नहीं। प्र.क्यों नहीं !
उ.-इनके पंचयाम और पंच महाशील अपूर्ण हैं । जैनदर्शनमें महाव्रतके भेद प्रतिभेद अति सूक्ष्म हैं । पहले दोनोंके स्थूल हैं।
प्र.-इसकी सूक्ष्मता दिखानेके लिये कोई दृष्टांत दीजिये ।
उ.-दृष्टांत स्पष्ट है । पंचयामी कंदमूल आदि अभक्ष्य खाते हैं। सुखशय्यामें सोते हैं; विविध प्रकारके वाहन और पुष्पोंका उपभोग करते हैं; केवल शीतल जलसे अपना व्यवहार चलाते हैं; रात्रिमें भोजन करते हैं । इसमें होनेवाला असंख्यातो जीवोंका नाश, ब्रह्मचर्यका भंग इत्यादिकी सूक्ष्मताको वे नहीं जानते । तथा बौद्धमुनि माँस आदि अभक्ष्य और सुखशील साधनोंसे युक्त हैं । जैन मुनि तो इनसे सर्वथा विरक्त हैं।
१०६ विविध प्रश्न
प्र.-वेद और जैनदर्शनकी प्रतिपक्षता क्या वास्तविक है !
उ.-जैनदर्शनकी इससे किसी विरोधी भावसे प्रतिपक्षता नहीं, परन्तु जैसे सत्यका असत्य प्रतिपक्षी गिना जाता है, उसी तरह जैनदर्शनके साथ वेदका संबंध है।
प्र.-इन दोनोंमें आप किसे सत्य कहते हैं ! उ.-पवित्र जैनदर्शनको । प्र.-वेद दर्शनवाले वेदको सत्य बताते हैं, उसके विषयमें आपका क्या कहना है ?
उ.-यह तो मतभेद और जैनदर्शनके तिरस्कार करनेके लिये है, परन्तु आप न्यायपूर्वक दोनोंके मूलतत्त्वोंको देखें।
प्र.-इतना तो मुझे भी लगता है कि महावीर आदि जिनेश्वरका कथन न्यायके काँटेपर है। परन्तु वे जगत्के कर्ताका निषेध करते हैं, और जगत्को अनादि अनंत कहते हैं, इस विषयमें कुछ कुछ शंका होती है कि यह असंख्यात द्वीपसमुद्रसे युक्त जगत् विना बनाये कहाँसे आ गया !