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चारगति ] ...
मोक्षमाला इस नियमसे वह चक्र फिर कर पछि भरतेश्वरके हाथमें आया । भरतके चक्र छोड़नेसे बाहुबलको बहुत क्रोध आया। उन्होंने महाबलवत्तर मुष्टि चलाई । तत्काल ही वहाँ उनकी भावनाका स्वरूप बदला। उन्होंने विचार किया कि मैं यह बहुत निंदनीय काम कर रहा हूँ, इसका परिणाम कितना दुःखदायक है! भले ही भरतेश्वर राज्य भोगें । व्यर्थ ही परस्परका नाश क्यों करना चाहिये? यह मुष्टि मारनी योग्य नहीं है, परन्तु उठाई तो अब पीछे हटाना भी योग्य नहीं। यह विचारकर उन्होंने पंचमुष्टि-केशलोंच किया,
और वहांसे मुनि-भावसे चल पड़े । उन्होंने जहाँ भगवान् आदीश्वर अठानवें दीक्षित पुत्रोंसे और आर्य, आर्या सहित विहार करते थे, वहां जानेकी इच्छा की । परन्तु मनमें मान आया कि यदि वहां मैं जाऊँगा तो अपनेसे छोटे अठानवें भाईयोंको वंदन करना पड़ेगा । इसलिये वहाँ तो जाना योग्य नहीं । इस प्रकार मानवृत्तिसे वनमें वे एकाग्र ध्यानमें अवस्थित हो गये । धीरे धीरे बारह मास बीत गये । महातपसे बाहुबलकी काया अस्थिपंजरावशेष रह गई । वे सूखे हुए वृक्ष जैसे दीखने लगे, परन्तु जबतक मानका अंकुर उनके अंतःकरणसे नहीं हटा, तबतक उन्होंने सिद्धि नहीं पायी । ब्राह्मी और सुंदरीने आकर उनको उपदेश किया:-" आर्यवीर! अब मदोन्मत्त हाथीपरसे उतरो, इससे तो बहुत सहन करना पड़ा," उनके इन वचनोंसे बाहुबल विचारमें पड़े । विचारते विचारते उन्हें भान हुआ कि " सत्य है, मैं मानरूपी मदोन्मत्त हाथीपरसे अभी कहाँ उतरा हूँ ! अब इसपरसे उतरना ही मंगलकारक है।" ऐसा विचारकर उन्होंने वंदन करनेके लिये पैर उठाया, कि उन्होंने अनुपम दिव्य कैवल्य कमलाको पाया। वाचक ! देखो, मान यह कैसी दुरित वस्तु है।
१८ चारगति जीव सातावेदनीय और असातावेदनीयका वेदन करता हुआ शुभाशुभ कर्मका फल भोगनेके लिये इस संसार वनमें चार गतियोंमें भटका करता है । तो इन चार गतियोंको अवश्य जानना चाहिये ।
१ नरकगति-महाआरंभ, मदिरापान, मांसभक्षण इत्यादि तीव्र हिंसाके करनेवाले जीव अघोर नरकमें पड़ते हैं । वहाँ लेश भी साता, विश्राम अथवा सुख नहीं। वहाँ महा अंधकार व्याप्त है, अंग-छेदन सहन करना पड़ता है, अमिमें जलना पड़ता है,और छुरेकी धार जैसा जल पीना पड़ता है । वहाँ अनंत दुःखके द्वारा प्राणियोंको संक्लेश, असाता और बिलबिलाहट सहन करने पड़ते हैं । ऐसे दुःखोंको केवलज्ञानी भी नहीं कह सकते । अहो ! इन दुःखोंको अनंत बार इस आत्माने भोगा है।
२ तिर्यचगति-छल, झूठ, प्रपंच इत्यादिकके कारण जीव सिंह, बाघ, हाथी, मृग, गाय, भैंस, बैल इत्यादि तिर्यचके शरीरको धारण करता है । इस तिर्यंच गतिमें भूख, प्यास, ताप, वध, बंधन, तादन, भारवहन इत्यादि दुःखोंको सहन करता है।
३ मनुष्यगति-खाद्य, अखाधके विषयमें विवेक रहित होता है, लज्जाहीन होकर माता और पुत्रीके साथ काम-गमन करनेमें जिसे पापापापका भान नहीं, जो निरंतर मांसभक्षण, चोरी, परस्त्री-गमन वगैरह महा पातक किया करता है, यह तो मानों अनार्य देशका अनार्य मनुष्य है । आर्य देशमें भी क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य आदि मतिहीन, दरिद्री, अज्ञान और रोगसे पीड़ित मनुष्य हैं और मान, अपमान इत्यादि अनेक प्रकारके दुःख भोग रहे हैं।