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कपिलमुनि]
मोक्षमाला
४८ कपिलमुनि
जिसे दो मासा सोना लेनेकी इच्छा थी वह कपिल अब तृष्णाकी तरंगोंमें बह गया। जब उसने पाँच मोहरें माँगनेकी इच्छा की तो उसे विचार आया कि पाँच मोहरोंसे कुछ पूरा नहीं होगा। इसलिये पञ्चीस मोहरें माँगना ठीक है। यह विचार भी बदला । पच्चीस मोहरोंसे कुछ पूरा वर्ष नहीं कटेगा, इसलिये सौ मोहरें माँगना चाहिये । यह विचार भी बदला । सौ मोहरोंसे दो वर्ष तक वैभव भागेंगे, फिर दुःखका दुःख ही है । अतएव एक हजार मोहरोंकी याचना करना ठीक है। परन्तु एक हजार मोहरें, बाल-बच्चोंके दो चार खर्च आये, कि खतम हो जायँगी, तो पूरा भी क्या पड़ेगा। इसलिये दस हजार मोहरें माँगना ठीक है, जिससे कि जिन्दगी भर भी चिंता न हो। यह भी इच्छा बदली। दस हजार मोहरें खा जानेके बाद फिर पूँजीके बिना रहना पड़ेगा। इसलिये एक लाख मोहरोंकी माँगनी करूँ कि जिसके व्याजमें समस्त वैभवको भोग सकूँ । परन्तु हे जीव ! लक्षाधिपति तो बहुत हैं, इसमें मैं प्रसिद्ध कहाँसे हो सकता हूँ। अतएव करोड़ मोहरें माँगना ठीक है, कि जिससे मैं महान् श्रीमन्त कहा जाऊँ । फिर पीछे रंग बदला । महान् श्रीमंतपनेसे भी घरपर अमलदारी नहीं कही जा सकती। इसलिये राजाका आधा राज्य माँगना ठीक है। परन्तु यदि में आधा राज्य माँगूगा तो राजा मेरे तुल्य गिना जावेगा और इसके सिवाय मैं उसका याचक भी गिना जाऊँगा । इसलिये माँगना तो फिर समस्त राज्य ही माँगना चाहिये । इस तरह कपिल तृष्णामें डूबा । परन्तु वह था तुच्छ संसारी, इससे फिरसे पीछे लौटा । भला जीव ! ऐसी कृतघ्नता क्यों करनी चाहिये कि जो तेरी इच्छानुसार देनेके लिये तत्पर हो, उसका ही राज्य ले लूं और उसे ही भ्रष्ट करूँ। वास्तवमें देखनेसे तो इसमें अपनी ही भ्रष्टता है । इसलिये आधा राज्य माँगना ठीक है । परन्तु इस उपाधिकी भी मुझे आवश्यकता नहीं। फिर रुपये पैसकी उपाधि ही क्या है ? इसलिये करोड़ लाख छोड़कर सौ दौसो मोहरें ही माँग लेना ठीक है। जीव ! सौ दोसौ मोहरें मिलेंगी तो फिर विषय वैभवमें ही समय चला जायगा, और विद्याभ्यास भी धरा रहेगा । इसलिये अब पाँच मोहरें ले लो, पीछेकी बात पीछे । अरे ! पाँच मोहरोंकी भी अभी हालमें अब कोई आवश्यकता नहीं। तू केवल दो मासा सोना लेने आया था उसे ही माँग ले । जीव ! यह तो तो बहुत हुई। तृष्णा-समुद्रमें तूने बहुत डुबकियाँ लगाई। समस्त राज्य माँगनेसे भी जो तृष्णा नहीं बुझती थी उसे केवल संतोष और विवेकसे घटाया तो घटी। यह राजा यदि चक्रवर्ती होता, तो फिर मैं इससे विशेष क्या माँग सकता था और विशेष जबतक न मिलता तबतक मेरी तृष्णा भी शान्त न होती। जबतक तृष्णा शान्त न होती, तबतक मैं सुखी भी न होता। जब इतनेसे यह मेरी तृष्णा शान्त न हुई तो फिर दो मासे सोनेसे कैसे शान्त हो सकती है ? कपिलकी आत्मा ठिकाने आई और वह बोला, अब मुझे इस दो मासे सोनेका भी कुछ काम नहीं । दो मासेसे बढ़कर मैं कितनेतक पहुँच गया ! सुख तो संतोषमें ही है। तृष्णा संसार-वृक्षका बीज है। हे जीव ! इसकी तुझे क्या आवश्यकता है ? विद्या ग्रहण करता हुआ तू विषयमें पड़ गया; विषयमें पड़नेसे इस उपाधिमें पड़ गया; उपाधिके कारण तू अनन्त-तृष्णा समुद्र में पड़ा । एक उपाधिमेसे इस संसारमें ऐसी अनन्त उपाधियाँ सहन करनी पड़ती