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धर्मध्यान] मोक्षमाला
७३ भील-नहीं भाई, ऐसी चीज़ तो यहाँ एक भी नहीं । उनके सौर्व अथवा हजारवें भागतककी भी मनोहर चीज़ यहाँ कोई नहीं ।
कुटुम्बी-तो तू चुपचाप बैठा रह । तुझे भ्रमणा हुई है। भला इससे अच्छा और क्या होगा ! हे गौतम ! जैसे यह भील राज-वैभवके सुख भोगकर आया था और उन्हें जानता भी था, फिर भी उपमाके योग्य वस्तु न मिलनेसे वह कुछ नहीं कह सकता था, इसी तरह अनुपमेय मोक्षको, सच्चिदानंद स्वरूपमय निर्विकारी मोक्षके सुखके असंख्यातवें भागको भी योग्य उपमाके न मिलनेसे मैं तुझे कह नहीं सकता।
__ मोक्षके स्वरूपमें शंका करनेवाले तो कुतर्कवादी हैं। इनको क्षणिक सुखके विचारके कारण सत्सुखका विचार कहाँसे आ सकता है ! कोई आत्मिक-ज्ञानहीन ऐसा भी कहते हैं कि संसारसे कोई विशेष सुखका साधन मोक्षमें नहीं रहता इसलिये इसमें अनंत अव्याबाध सुख कह दिया है, इनका यह कथन विवेकयुक्त नहीं । निद्रा प्रत्येक मानवीको प्रिय है, परन्तु उसमें वे कुछ जान अथवा देख नहीं सकते;
और यदि कुछ जाननेमें आता भी है, तो वह केवल मिथ्या स्वप्नोपाधि आती है। जिसका कुछ असर हो ऐसी स्वप्नरहित निद्रा जिसमें सूक्ष्म स्थूल सब कुछ जान और देख सकते हों, और निरुपाधिसे शांत नींद ली जा सकती हो, तो भी कोई उसका वर्णन कैसे कर सकता है, और कोई इसकी उपमा भी क्या दे! यह तो स्थूल दृष्टांत है, परन्तु बालविवेकी इसके ऊपरसे कुछ विचार कर सकें इसलिये यह कहा है। भीलका दृष्टांत समझानेके लिये भाषा-भेदके फेरफारसे तुम्हें कहा है।
७४ धर्मध्यान ।
भगवान्ने चार प्रकारके ध्यान बताये हैं-आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल । पहले दो ध्यान त्यागने योग्य हैं। पीछेके दो ध्यान आत्मसार्थक हैं। श्रुतज्ञानके भेदोंको जाननेके लिये, शास्त्र-विचारमें कुशल होनेके लिये, निम्रन्थ प्रवचनका तत्त्व पानेके लिये, सत्पुरुषोंद्वारा सेवा करने. योग्य, विचारने योग्य और ग्रहण करने योग्य धर्मध्यानके मुख्य सोलह भेद हैं। पहले चार भेदोंको कहता हूँ१ आणाविचय (आज्ञाविचय), २ आवायविचय ( अपायविचय ), ३ विवागविचय (विपाकविचय ), ४ संठाणविचय ( संस्थानविचय )। १ आज्ञाविचय-आज्ञा अर्थात् सर्वज्ञ भगवान्ने धर्मतत्त्वसंबंधी जो कुछ भी कहा है वह सब सत्य है, उसमें शंका करना योग्य नहीं । कालकी हीनतासे, उत्तम ज्ञानके विच्छेद होनेसे, बुद्धिकी मंदतासे अथवा ऐसे ही अन्य किसी कारणसे मेरी समझमें ये तत्व नहीं आते; परन्तु अर्हन्त भगवान्ने अंशमात्र भी मायायुक्त अथवा असत्य नहीं कहा, कारण कि वे वीतरागी, त्यागी और निस्पृही थे। इनको मृषा कहनेका कोई भी कारण न था । तथा सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी होनेके कारण अज्ञानसे भी वे मृषा नहीं कहेंगे । जहाँ अज्ञान ही नहीं वहाँ तत्संबंधी मृषा कहाँसे हो सकता है ! इस प्रकार चिंतन करना ' आज्ञाविचय' नामका प्रथम भेद है । २ अपायविचयराग, द्वेष, काम, क्रोध इत्यादिसे जीवको जो दुःख उत्पन्न होता है, उसीसे इसे भवमें भटकना पड़ता है। इसका चितवन करना 'अपायविचय' नामका दूसरा भेद है । अपायका अर्थ दुःख है। ३ विपाक