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श्रीमद् राजचन्द्र
[तत्वावबोष ही जान सकते हैं जिन्होंने वीतरागप्रणीत सिद्धांत विवेकसे जाने हैं । संभव है, मेरे इस कहनेको मंदबुद्धि लोग पक्षपात मान बैठें।
९७ तत्त्वावबोध
(१६) पवित्र जैनदर्शनको नास्तिक कहलानेवाले एक मिथ्या दलीलसे जीतना चाहते हैं और वह यह है कि जैनदर्शन परमेश्वरको इस जगत्का कर्ता नहीं मानता, और जो परमेश्वरको जगत्कर्ता नहीं मानता वह तो नास्तिक ही है इसप्रकारकी मान ली हुई बात भद्रिकजनोंको शीघ्र ही ज़ा लगती है, क्योंकि उनमें यथार्थ विचार करनेकी प्रेरणा नहीं होती । परन्तु यदि इसके ऊपरसे यह विचार किया जाय कि फिर जैनदर्शन जगत्को अनादि अनंत किस न्यायसे कहता है ? जगत्कर्ता न माननेका इसका क्या कारण है ! इस प्रकार एकके बाद एक भेदरूप विचार करनेसे वे जैनदर्शनकी पवित्रताको समझ सकते हैं । परमेश्वरको जगत् रचनेकी क्या आवश्यकता थी ! परमेश्वरने जगत्को रचा तो सुख दुःख बनानेका क्या कारण था ? सुख दुःखको रचकर फिर मौतको किसलिये बनाया ! यह लीला उसे किसको बतानी थी ? जगत्को रचा तो किस कर्मसे रचा ! उससे पहले रचनेकी इच्छा उसे क्यों न हुई ? ईश्वर कौन है ? जगत्के पदार्थ क्या हैं ! और इच्छा क्या है ! जगत्को रचा तो फिर इसमें एक ही धर्मकी प्रवृत्ति रखनी थी; इस प्रकार भ्रमणामें डालनेकी क्या जरूरत थी ? कदाचित् यह मान लें कि यह उस बिचारेसे भूल हो गई! होगी ! खैर क्षमा करते हैं, परन्तु ऐसी आवश्यकतासे अधिक अक्लमन्दी उसे कहाँसे सूझी कि उसने अपनेको ही मूलसे उखाड़नेवाले महावीर जैसे पुरुषोंको जन्म दिया ! इनके कहे हुए दर्शनको जगत्में क्यों मौजूद रक्खा ? अपने पैरपर अपने हाथसे कुल्हाड़ा मारनेकी उसे क्या आवश्यकता थी ! एक तो मानो इस प्रकारके विचार, और अन्य दूसरे प्रकारके ये विचार कि जैनदर्शनके प्रवर्तकोंको क्या इससे कोई द्वेष था? यदि जगत्का कर्ता होता तो ऐसा कहनेसे क्या इनके लाभको कोई हानि पहुँचती थी! जगतका कर्ता नहीं, जगत् अनादि अनंत है; ऐसा कहनेमें इनको क्या कोई महत्ता मिल जाती थी ! इस प्रकारके अनेक विचारोंपर विचार करनेसे मालूम होगा कि जैसा जगत्का स्वरूप है, उसे वैसा ही पवित्र पुरुषोंने कहा है। इसमें भिन्नरूपसे कहनेको इनका लेशमात्र भी प्रयोजन न था । सूक्ष्मसे सूक्ष्म जंतुकी रक्षाका जिसने विधान किया है, एक रज-कणसे लेकर समस्त जगत्के विचार जिसने सब भेदोंसहित कहे हैं, ऐसे पुरुषोंके पवित्र दर्शनको नास्तिक कहनेवाले किस गतिको पावेंगे, यह विचारनेसे दया आती है !
९८ तत्वावबोध
(१७) जो न्यायसे जय प्राप्त नहीं कर सकता वह पीछेसे गाली देने लगता है। इसी तरह पवित्र जैनदर्शनके अखंड तत्त्वसिद्धांतोंका जब शंकराचार्य, दयानन्द सन्यासी वगैरह खंडन न कर सके तो फिर वे " जैन नास्तिक है, सो चार्वाकमेंसे उत्पन्न हुआ है "-ऐसा कहने लगे । परन्तु यहाँ कोई प्रश्न करे कि महाराज ! यह विवेचन आप पीछेसे करें । इन शब्दोंको कहने में समय विवेक अथवा