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समाजकी आवश्यकता]
मोक्षमाला
ज्ञानकी कोई जरूरत नहीं होती परन्तु आप इस बातका उत्तर दें कि जैनदर्शन वेदसे किस वस्तुमें उतरता हुआ है। इसका ज्ञान, इसका उपदेश, इसका रहस्य, और इसका सत्शील कैसा है उसे एक बार कहें तो सही । आपके वेदके विचार किस बाबतमें जैनदर्शनसे बढ़कर हैं ? इस तरह जब वे मर्मस्थानपर आते हैं तो मौनके सिवाय उनके पास दूसरा कोई साधन नहीं रहता । जिन सत्पुरुषोंके वचनामृत और योगके बलसे इस सृष्टिमें सत्य, दया, तत्त्वज्ञान और महाशील उदय होते हैं, उन पुरुषोंकी अपेक्षा जो पुरुष शृंगारमें रचे पचे पड़े हुए हैं, जो सामान्य तत्त्वज्ञानको भी नहीं जानते, और जिनका आचार भी पूर्ण नहीं, उन्हें बढ़कर कहना, परमेश्वरके नामसे स्थापित करना, और सत्यस्वरूपकी निंदा करनी, परमात्मस्वरूपको पाये दुओंको नास्तिक कहना, ये सब बातें इनके कितने अधिक कर्मकी बहुलताको सूचित करती हैं ! परन्तु जगत् मोहसे अंध है; जहाँ मतभेद है वहाँ अँधेरा है; जहाँ ममत्व अथवा राग है वहाँ सत्य तत्त्व नहीं। ये बातें हमें क्यों न विचारनी चाहिये ? ___मैं तुम्हें निर्ममत्व और न्यायकी एक मुख्य बात कहता हूँ। वह यह है कि तुम चाहे किसी भी दर्शनको मानो; फिर जो कुछ भी तुम्हारी दृष्टिमें आवे वैसा जैनदर्शनको कहो । सब दर्शनोंके शास्त्र-तत्त्वोंको देखो, तथा जैनतत्त्वोंको भी देखो । स्वतंत्र आत्म-शक्तिसे जो योग्य मालूम हो उसे अंगीकार करो । मेरे कहनेको अथवा अन्य किसी दूसरेके कहनेको भले ही एकदम तुम न मानो परन्तु तत्त्वको विचारो।
९९ समाजकी आवश्यकता आंग्लदेशवासियोंने संसारके अनेक कलाकौशलोंमें किस कारणसे विजय प्राप्त की है ? यह विचार करनेसे हमें तत्काल ही मालूम होगा कि उनका बहुत उत्साह और इस उत्साहमें अनेकोंका मिल जाना ही उनकी सफलताका कारण है । कलाकौशलके इस उत्साही काममें इन अनेक पुरुषोंके द्वारा स्थापित सभा अथवा समाजको क्या परिणाम मिला ! तो उत्तरमें यही कहा जायगा कि लक्ष्मी, कीर्ति और अधिकार । इनके इस उदाहरणके ऊपरसे इस जातिके कलाकौशलकी खोज करनेका मैं यहाँ उपदेश नहीं देता, परन्तु सर्वज्ञ भगवान्का कहा हुआ गुप्त तत्त्व प्रमाद-स्थितिमें आ पड़ा है, उसे प्रकाशित करनेके लिये तथा पूर्वाचार्योंके गूंथे हुए महान् शास्त्रोंको एकत्र करनेके लिये, पड़े हुए गच्छोंके मतमतांतरको हटानेके लिये तथा धर्म-विद्याको प्रफुल्लित करनेके लिये सदाचरणी श्रीमान् और धीमान् दोनोंको मिलकर एक महान् समाजकी स्थापना करनेकी आवश्यकता है, यह कहना चाहता हूँ। पवित्र स्याद्वादमतके देके हुए तत्वोंको प्रसिद्धिमें लानेका जबतक प्रयत्न नहीं होता, तबतक शासनकी उन्नति भी नहीं होगी । संसारी कलाकौशलसे लक्ष्मी, कीर्ति और अधिकार मिलते हैं, परन्तु इस धर्म-कलाकौशलसे तो सर्व सिद्धि प्राप्त होगी। महान् समाजके अंतर्गत उपसमाजोंको स्थापित करना चाहिये । सम्प्रदायके बाड़े में बैठे रहनेकी अपेक्षा मतमतांतर छोड़कर ऐसा करना उचित है । मैं चाहता हूँ कि इस उद्देश्यकी सिद्धि होकर जैनोंके अंतर्गच्छ मतभेद दूर हों; सत्य वस्तुके ऊपर मनुष्यसमाजका लक्ष आवे; और ममत्व दूर हो।
१०० मनोनिग्रहके विन . बारम्बार जो उपदेश किया गया है, उसमेंसे मुख्य तात्पर्य यही . निकलता है कि आत्माका