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पंचमकाल]
मोक्षमाला हैं-उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी । एक एक भेदके छह छह आरे हैं । आज कलका चालू आरा पंचमकाल कहलाता है, और वह अवसर्पिणी कालका पाँचवा आरा है । अवसर्पिणी उतरते हुए कालको कहते हैं । इस उतरते हुए कालके पाँचवे आरेमें इस भरतक्षेत्रमें कैसा आचरण होना चाहिये इसके लिये सत्पुरुषोंने कुछ विचार बताये हैं, उन्हें अवश्य जानना चाहिये ।
इन्होंने पंचमकालके स्वरूपको मुख्यरूपसे इस प्रकारका बताया है। निग्रंथ प्रवचनके ऊपरसे मनुष्योंकी श्रद्धा क्षीण होती जावेगी। धर्मके मूलतत्त्वोंमें मतमतांतरोंकी वृद्धि होगी। पाखंडी और प्रपंची मतोंका मंडन होगा। जन-समूहकी रुचि अधर्मकी और फिरेगी । सत्य और दया धीमे धीमे पराभवको प्राप्त होंगे। मोह आदि दोषोंकी वृद्धि होती जायगी। दंभी और पापिष्ठ गुरु पूज्य होंगे। दुष्टवृत्तिके मनुष्य अपने फंदमें सफल होंगे। मीठे किन्तु धूर्तवक्ता पवित्र माने जायँगे। शुद्ध ब्रह्मचर्य आदि शीलसे युक्त पुरुष मलिन कहलावेंगे । आत्म-ज्ञानके भेद नष्ट होने जायेंगे । हेतुहीन क्रियाएँ बढ़ती जायँगी । अज्ञान क्रियाका बहुधा सेवन किया जायगा। व्याकुल करनेवाले विषयोंके साधन बढ़ते जायेंगे। एकांतवादी पक्ष सत्ताधीश होंगे। श्रृंगारसे धर्म माना जावेगा।
सच्चे क्षत्रियों के विना भूमि शोकसे पीड़ित होगी। निर्माल्य राजवंशी वेश्याके विलासमें मोहको प्राप्त होंगे; धर्म, कर्म और सच्ची राजनीति भूल जायेंगे; अन्यायको जन्म देंगे; जैसे लूटा जावेगा वैसे प्रजाको लूटेंगे; स्वयं पापिष्ठ आचरणको सेवनकर प्रजासे उन आचरणोंका पालन करावेंगे । राजवंशके नामपर शून्यता आती जायगी। नीच मंत्रियोंकी महत्ता बढ़ती जायगी। ये लोग दीन प्रजाको चूसकर भंडार भरनेका राजाको उपदेश देंगे; शील-भंग करनेके धर्मको राजाको अंगीकार करायेंगे; शौर्य आदि सद्गुणोंका नाश करायेंगे; मृगया आदि पापोंमें अँधे बनावेंगे। राज्याधिकारी अपने अधिकारसे हजार गुना अहंकार रक्खेंगे । ब्राह्मण लालची और लोभी हो जायेंगे; सद्विद्याको छुपा देंगे; संसारी साधनोंको धर्म ठहरावेंगे । वैश्य लोग मायावी, सर्वथा स्वार्थी और कठोर हृदयके होते जायेंगे । समग्र मनुष्यवर्गकी सवृत्तियाँ घटती जायगी। अकृत और भयंकर कृत्य करनेसे उनकी वृत्ति नहीं रुकेगी। विवेक, विनय, सरलता, इत्यादि सद्गुण घटते जायेंगे । अनुकंपाका स्थान हीनता ले लेगी। माताकी अपेक्षा पत्नीमें प्रेम बढ़ेगा। पिताकी अपेक्षा पुत्रमें प्रेम बढ़ेगा। पातिव्रत्यको नियमसे पालनेवाली सुंदरियाँ घट जायेंगी। स्नानसे पवित्रता मानी जायगी। धनसे उत्तम कुल गिना जायगा। शिष्य गुरुसे उलटा चलेंगे । भूमिका रस घट जायगा । संक्षेपमें कहनेका भावार्थ यह है कि उत्तम वस्तुओंकी क्षीणता और कनिष्ठ वस्तुका उदय होगा । पंचमकालका स्वरूप उक्त बातों का प्रत्यक्ष सूचन भी कितना अधिक करता है !
मनुष्य सद्धर्मतत्वमें परिपूर्ण श्रद्धावान नहीं हो सकता, सम्पूर्ण और तत्त्वज्ञान नहीं पा सकता । जम्बूस्वामीके निर्वाणके बाद दस निर्वाणी वस्तुएँ इस भरतक्षेत्रसे व्यवच्छेद हो गई ।
- पंचमकालका ऐसा स्वरूप जानकर विवेकी पुरुष तत्त्वको ग्रहण करेंगे; कालानुसार धर्मतत्त्वकी श्रद्धा प्राप्त कर उच्चगति साधकर अन्तमें मोक्ष प्राप्त करेंगे । निन्य प्रवचन, निम्रन्थ गुरु इत्यादि धर्मतत्वके पानेके साधन हैं । इनकी आराधनासे कर्मको विराधना है।