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भीमराजचन्द्र
[शानके संबंध दो बन्द हूँ--पहला मति, दूसरा श्रुत, तीसरा अवधि, चौथा मनःपर्यव और पाँचवाँ सम्पूर्णस्वरूप केवल । इनके भी प्रतिभेद हैं और उनके भी अतीन्द्रिय स्वरूपसे अनन्त भंगजाल हैं।
३. जानने योग्य क्या है ! अब इसका विचार करें। वस्तुके स्वरूपको जाननेका नाम ज्ञान है; तब वस्तु तो अनंत हैं, इन्हें किस पंक्तिसे जानें ! सर्वज्ञ होनेपर वे सत्पुरुष सर्वदर्शितासे अनंत वस्तुओंके स्वरूपको सब भेदोंसे जानते और देखते हैं, परन्तु उन्होंने इस सर्वज्ञ पदवीको किन किन वस्तुओंके जाननेसे प्राप्त किया ! जबतक अनंत श्रेणियोंको नहीं जाना तबतक किस वस्तुको जानते जानते वे अनन्त वस्तुओंको अनन्तरूपसे जान पावेंगे ! इस शंकाका अब समाधान करते हैं। जो अनंत वस्तुयें मानी हैं वे अनंत भंगोंकी अपेक्षासे हैं । परन्तु मुख्य वस्तुत्वकी दृष्टिसे उसकी दो श्रेणियाँ हैं-जीव और अजीव । विशेष वस्तुत्व स्वरूपसे नौ तत्त्व अथवा छह द्रव्यकी श्रेणियाँ मानी जा सकती हैं । इस पंक्तिसे चढ़ते चढ़ते सर्व भावसे ज्ञात होकर लोकालोकके स्वरूपको हस्तामलककी तरह जान और देख सकते हैं । इसलिये जानने योग्य पदार्थ तो केवल जीव और अजीव हैं। इस तरह जाननेकी मुख्य दो श्रेणियाँ कहाई।।
८० ज्ञानके संबंधमें वो शब्द
(४) १. इनके उपभेदोंको संक्षेपमें कहता हूँ। 'जीव' चैतन्य लक्षणसे एकरूप है । देहस्वरूपसे और द्रव्यरूपसे अनंतानंत है । देहस्वरूपमें उसके इन्द्रिय आदि जानने योग्य हैं; उसकी गति, विगति इत्यादि जानने योग्य हैं; उसकी संसर्ग ऋद्धि जानने योग्य है । इसी तरह · अजीव ' के रूपी अरूपी पदल आकाश आदि विचित्रभाव कालचक्र इत्यादि जानने योग्य हैं। प्रकारांतरसे जीव, अजीवको जाननेके लिये सर्वज्ञ सर्वदर्शीने नौ श्रेणिरूप नव तत्वको कहा है
जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष । इनमें कुछ ग्रहण करने योग्य और कुछ त्यागने योग्य हैं। ये सब तत्त्व जानने योग्य तो हैं ही।
५. जाननेके साधन । यद्यपि सामान्य विचारसे इन साधनोंको जान लिया है फिर भी कुछ विशेष विचार करते हैं। भगवान्की आज्ञा और उसके शुद्ध स्वरूपको यथार्थरूपसे जानना चाहिये । स्वयं तो कोई विरले ही जानते हैं, नहीं तो इसे निर्ग्रन्थज्ञानी गुरु बता सकते हैं । रागहीन ज्ञाता सर्वोत्तम हैं। इसलिये श्रद्धाका बीज रोपण करनेवाला अथवा उसे पोषण करनेवाला गुरु केवल साधनरूप है। इन साधन आदिके लिये संसारकी निवृत्ति अर्थात् शम, दम, ब्रह्मचर्य आदि अन्य साधन हैं । इन्हें साधनोंको प्राप्त करनेका मार्ग कहा जाय तो भी ठीक है।
६. इस ज्ञानके उपयोग अथवा परिणामके उत्तरका आशय ऊपर आ गया हैपरन्तु कालभेदसे कुछ कहना है, और वह इतना ही कि दिनमें दो घड़ीका वक्त भी नियमितरूपसे निकालकर जिनेश्वर भगवानके कहे हुए तत्त्वोपदेशकी पर्यटना करो। वीतरागके एक सैद्धांतिक शब्दसे ज्ञानावरणीयका बहुत क्षयोपशम होगा ऐसा में विवेकसे कहता हूँ। .
८१ पंचमकाल कालचक्रके विचारोंको अवश्य जानना चाहिये। श्री जिनेश्वरने इस कालचक्रके दो मुख्य भेद कहे