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धर्मध्यान]
मोक्षमाला १ वाचना-विनय सहित निर्जरा तथा ज्ञान प्राप्त करनेके लिये सूत्र-सिद्धांतके मर्म जाननेवाले गुरु अथवा सत्पुरुषके समीप सूत्रतत्त्वके अभ्यास करनेको, वाचना आलंबन कहते हैं। २ पृच्छना-अपूर्व ज्ञान प्राप्त करनेके लिये जिनेश्वर भगवान्के मार्गको दिपाने तथा शंका-शल्यको निवारण करनेके लिये, तथा दूसरोंके तत्त्वोंकी मध्यस्थ परीक्षाके लिये यथायोग्य विनयसहित गुरु आदिसे प्रश्नोंके पूंछनेको पृच्छना कहते हैं । ३ परावर्तना--पूर्वमें जो गिनभाषित सूत्रार्थ पढ़े हों उन्हें मरणमें रखनेके लिये और निर्जराके लिये शुद्ध उपयोगसहित शुद्ध सूत्रार्थकी बारंबार सज्झाय करना परावर्तना आलंबन है। ४ धर्मकथा-वीतराग भगवान्ने जो भाव जैसा प्रणीत किया है, उस भावको उसी तरह समझकर, ग्रहणकर, विशेष रूपसे निश्चय करके, शंका कांखा वितिगिच्छारहित अपनी निर्जराके लिये सभामें उन भावोंको उसी तरह प्रणीत करना, जिससे सुननेवाले और श्रद्धा करनेवाले दोनों ही भगवान्की आज्ञाके आराधक हों, उसे धर्मकथा आलंबन कहते हैं। ये धर्मध्यानके चार आलंबन कहे । अब धर्मध्यानकी चार अनुप्रेक्षाएँ कहता हूँ--१ एकत्वानुप्रेक्षा, २ अनित्यानुप्रेक्षा, ३ अशरणानुप्रेक्षा, ४ संसारानुप्रेक्षा । इन चारोंका उपदेश बारह भावनाके पाठमें कहा जा चुका है । वह तुम्हें स्मरण होगा।
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धर्मध्यानको पूर्व आचार्योने और आधुनिक मुनीश्वरोंने भी विस्तारपूर्वक बहुत समझाया है । इस ध्यानसे आत्मा मुनित्वभावमें निरंतर प्रवेश करती जाती है ।
जो जो नियम अर्थात् भेद, लक्षण, आलम्बन और अनुप्रेक्षा कहे हैं, वे बहुत मनन करने योग्य हैं । अन्य मुनीश्वरोंके कहे अनुसार मैंने उन्हें सामान्य भाषामें तुम्हें कहा है । इसके साथ निरंतर ध्यान रखनेकी आवश्यकता यह है कि इनमेंसे हमने कौनसा भेद प्राप्त किया, अथवा कौनसे भेदकी ओर भावना रक्खी है ! इन सोलह भेदोंमें हर कोई हितकारी और उपयोगी है, परन्तु जिस अनुक्रमसे उन्हें प्रहण करना चाहिये उस अनुक्रमसे ग्रहण करनेसे वे विशेष आत्म-लाभके कारण होते हैं।
बहुतसे लोग सूत्र-सिद्धांतके अध्ययन कंठस्थ करते हैं। यदि वे उनके अर्थ, और उनमें कहे मूलतत्त्वोंकी ओर ध्यान दें तो वे कुछ सूक्ष्म भेदको पा सकते हैं। जैसे केलेके एक पत्रमें दूसरे और दूसरेमें तीसरे पत्रकी चमत्कृति है, वैसे ही सूत्रार्थमें भी चमत्कृति है । इसके ऊपर विचार करनेसे निर्मल और केवल दयामय मार्गके वीतराग-प्रणीत तत्त्वबोधका बीज अंतःकरणमें अंकुरित होगा। वह अनेक प्रकारके शास्त्रावलोकनसे, प्रश्नोत्तरसे, विचारसे और सत्पुरुषोंके समागमसे पोषण पाकर वृद्धि होकर वृक्षरूप होगा। यह पछि निर्जरा और आत्म-प्रकाशरूप फल देगा।
. श्रवण, मनन और निदिध्यासनके प्रकार वेदांतियोंने भी बताये हैं । परन्तु जैसे इस धर्मध्यानके पृथक् पृथक् सोलह भेद यहाँ कहे गये हैं वैसे तत्त्वपूर्वक भेद अन्यत्र कहीं पर भी नहीं कहे गये, यह अपूर्व है । इसमेंसे शास्त्रोंका श्रवण करनेका, मनन करनेका, विचारनेका, अन्यको बोध करनेका, शंका काखा दूर करनेका, धर्मकथा करनेका, एकत्व विचारनेका, अनित्यता विचारनेका, अशरणता विचारनेका,